मन के हारे, हार है

प्राय: देखा जाता है कि कुछ व्यक्ति समुचित सहायता, प्रेरणा और अनुकूल वातावरण मिलने पर भी आगे नहीं बढ़ पाते। ऐसे व्यक्ति हष्ट-पुष्ट तो होते हैं, अच्छा खाते, पहनते भी हैं परंतु जीवन में कोई उपलब्धि प्राप्त नहीं कर पाते। जिसके लिए वे स्वयं ही जिम्मेदार होते हैं। वे संघर्षों से दूर भागते हैं और किसी भी भयानक परिस्थिति का सामना नहीं कर पाते।
इसके विपरीत कुछ व्यक्ति व्यक्ति ऐसे भी होते हैं, जो होते तो दुबलेपतले हैं पर कठिन से कठिन परिस्थितियों का भी सामना डटकर करते हैं। वे दिन-बदिन सफलता की राह पर आगे बढ़ते जाते हैं।इन दोनों तरह के व्यक्ति के मध्य कोई फर्क नहीं रहता, रहता है तो बस इतना कि एक के साथ एक अद्भुत शक्ति होती है और एक के पास वह शक्ति होते हुए भी नहीं होती।
आखिर यह शक्ति है क्या, इसका जवाब है वह शक्ति कुछ और नहीं बल्कि उसका खुद का मन अर्थात् उसका मानसिक बल है।
प्राचीन ग्रंथों के अनुसार मनुष्य में प्रायः तीन प्रकार की शक्तियां विद्यमान रहती हैं। यहाँ हम शारीरिक तथा मानसिक शक्ति पर ही विचार करेंगे। शारीरिक शक्तिकी दृष्टि से देखें तो विश्व के सभी मनुष्यों के बीच थोड़ा-बहुत फर्क पाया जाता है। पर मानसिक शक्ति सबकी एक समान सेती है। बस फर्क होता है तो यह कि कोई उसे विकसित कर लेता है तो कोई उसे संकीर्ण बने रहने देता है। शरीर तो एक यंत्र के समान है जिसमें कोई न कोई खराबी आती ही रहती है पर हाँ अगर हम अपनी मानसिक शक्ति को इतना प्रबल कर लें तो यह खराबी भी ज्यादा समय तक नहीं रह सकती है।
उदाहरण के तौर पर हम देखते हैं कि कुछ मनुष्य थोड़ा सा कार्य करके ही थक जाते हैं और कुछ घंटों कार्य करते हुए भी नहीं थकते। इसका कारण है उनकी अपनी ही मानसिक शक्ति। एक व्यक्ति में यह संकीर्ण रूप से रहती है तो वह जल्द ही हार मान लेता है जबकि किसी दूसरे में यह विकसित रूप से रहती है तो वह उसे समय-समय पर बल देते हुए कार्य के लिए प्रोत्साहित करती रहती है। जिससे वह थकान महसूस नहीं करता।
अगर हम किसी भी महापुरुष का जीवन-चरित्र पढ़े तो उनके द्वारा किए गए कल्पनातीत कार्यों को जानकर हमें बहुत आश्चर्य होता है। हम यह सोचने को बाध्य हो जाते हैं कि वह कौन सी शक्ति थी, जिससे उन्होंने ऐसे अद्भुत कार्य कर डाले। विचार-विमर्श करने पर हमें पता चलता है कि उन लोगों की मानसिक शक्ति इतनी प्रबल थी कि वह उसके बलबूते पर असंभव से असंभव कार्य को सरलता से पूर्ण कर लेते थे। इसीलिए तो किसी महापुरुष ने सच ही कहा है –
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।
कार्य सफल सब पाइए, मन ही के परतीत।।
इस दोहे पर अगर हम गौर करें तो हमे पता चलेगा कि मन के हारने से ही व्यक्ति की भी हार हो जाती है और मन के जीतने से ही व्यक्ति की भी जीत हो जाती है। कठिन से कठिन कार्य भी सफल हो सकते हैं अगर हम अपने मन को विकसित कर लें, तो।
मानव ने अपने मन के परताप से परमात्मा को भी दिव्य रूप में प्रकट होने के लिए विवश कर दिया था। किसी महापुरुष ने तो यहाँ तक कह दिया है कि जिस व्यक्ति का मन हार चुका होता है वह व्यक्ति मर चुका होता है। मनुष्य को अपने संघर्षों से मुँह नहीं मोड़ना चाहिए।
अगर हम कहें कि मनुष्य की मानसिक शक्ति वास्तव में उसकी इच्छा शक्ति है तो यह गलत नहीं होगा। मानव की इच्छा शक्ति जितनी प्रबल होगी, उसका मन भी उतना ही सुदृढ़ होगा।
मनुष्य चाहे तो वह अपनी इच्छा शक्ति के माध्यम से मृत्यु को भी पछाड़ सकता है। भीष्म पितामह इसके जीते-जागते उदाहरण हैं। इसलिए हमें अपने मन को कभी हारने नहीं देना चाहिए।