शहीदी जोड़ मेला – फतहगढ़ साहिब

चण्डीगढ़-सरहिंद सड़क पर स्थित फतहगढ़ साहिब सिखों के दशम गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के दो छोटे साहिबज़ादों की अद्वितीय शहीदी और बलिदान के लिए जगत प्रसिद्ध स्थान है। यहां साहिबजादा जोरावर सिंह तथा साहिबज़ादा फतहसिंह अपनी बाल्यावस्था में ही मुगलों के साथ टक्कर लेते हुए।   देश और कौम के लिए शहीद हो गए थे। उस समय इन साहिबज़ादों की आयु क्रमशः मात्र नौ वर्ष तथा सात वर्ष की थी।   उनकी महान् शहादतों की स्मृति में यहां प्रत्येक वर्ष पौष माह की एकादशी से चतुर्दशी तिथि तक (दिसम्बर माह में) शहीदी जोड़ मेला आयोजित किया जाता है।  जिसमें लाखों लोग शामिल होते हैं। इस पवित्र कस्बे का नाम फतहगढ़ साहिब, साहिबजादा फतहसिंह के नाम पर रखा गया है। फतहगढ़ साहिब सरहिंद से केवल पांच किलोमीटर तथा चण्डीगढ़ से 48 किलोमीटर दूर है।
सन् 1701 में मुगल सेना ने आनंदपुर साहिब की घेराबंदी कर ली थी। उस समय वहां स्वयं श्रीगुरु गोबिंद सिंह तथा उनका परिवार ठहरा हुआ।  था।जब मुगल सेना इस अविराम घेराबंदी से कोई लाभ न उठा सकी तो उन्होंने एक चाल चली मुगलों ने गुरुजी के समक्ष एक प्रस्ताव रखा कि यदि वह आनंदपुर साहिब का किला छोड़ दें तो वे घेराबंदी समाप्त करके अपनी सेना वापिस ले जाएंगे तथा उन पर आक्रमण नहीं करेंगे गुरुजी ने उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया किन्तु जब गुरुजी किले से बाहर निकल आए तब मुगलों की नीयत बदल गई तथा उन्होंने सरसा नदी, जो उस समय बाढ़ के कारण लबालब भरी हुई थी।  के किनारे गुरुजी पर हमला बोल दिया।
इस हमले में माता गुजरी जी (गुरु जी की माता) तथा छोटे साहिबज़ादे जोरावर सिंह तथा फ़तह सिंह गुरुजी से बिछुड़ गएमाता गुजरी जी तथा दोनों साहिबज़ादे ‘खेड़ीगांव’ में अपने एक नौकर गंगू के घर ठहर गए पर गंगू एक सच्चा अनुचर न निकला उसने इनाम के लालच में, तथा मुगलों के भय से मोरिण्डा के शासक के पास खबर भिजवा दीउन तीनों को कैद करके सरहिंद के गवर्नर के पास भेज दिया गया।
यह घटना 9 पौष 1761 की है। अगले दिन 10 पौष को दोनों बालकों को गवर्नर के सामने पेश किया गया।   ।, जिसने उन्हें लालच दिया कि यदि वे इस्लाम धर्म स्वीकार कर लें तो उन्हें मुक्त कर दिया जाएगा, अन्यथा। उनकी हत्या कर दी जाएगी। जब साहिबजादों पर उसकी बात का कोई प्रभाव न पड़ा, तब इस निर्दयी ने उन दोनों को एक दीवार में जीवित चिनवा देने का आदेश दे दिया। जब यह दीवार साहिबज़ादों के गले तक पहुंची तो वे लगभग बेहोश हो चुके थे, तभी यह दीवार अचानक स्वयं ही चटककर धराशायी हो गई जब साहिबज़ादों को पुनः चेतना आई तो 12-13 पौष को उनको फिर वही इस्लाम धर्म को अपनाने के लिए बाध्य किया गया। परन्तु उन वीर बालकों ने स्पष्ट रूप से अस्वीकार कर दिया परिणामस्वरूप दोनों साहिबज़ादों को शहीद कर दिया गया। जब उनकी दादी, माता गुजरी जी को इस हृदय विदारक घटना के विषय में पता चला तो उन्होंने भी तत्काल अपने प्राण त्याग दिए। इन महान् शहादतों के प्रति श्रद्धा प्रकट करने यहां पर सर्वप्रथम 1888 में शहीदी जोड़ मेला आयोजित किया गया। जो कि अब प्रत्येक वर्ष बड़ी श्रद्धापूर्वक मनाया जाता है