सच्चा मित्र

सच्चा मित्र वही है जो मित्र के दु:ख में काम आता है। वह मित्र के कण जैसे दु:ख को भी मेरु के समान भारी मानकर उसकी सहायता करता है। एक सच्चा मित्र प्राणों से भी अधिक मूल्यवान होता है। मित्रता के अभाव में जीवन सूना हो जाता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार- “सच्ची मित्रता में उत्तम वैद्य की-सी निपुणता और परख होती है। अच्छी-से-अच्छी माता का सा धैर्य और कोमलता होती है।” गोस्वामी तुलसीदास ने सच्चे मित्र के विषय में कहा है-
जे न मित्र दुःख होहिं दुखारी,
तिन्हहि बिलोकत पातक भारी।
निज दुःख गिरि सम रजे करि जाना,
मित्रक दु:ख रज मेरु समाना।।
सच्चा मित्र हमारे लिए प्रेरक, सहायक और मार्गदर्शक का काम करता है। जब भी हम निराश होते हैं, मित्र हमारी हिम्मत बढ़ाता है। जब हम परास्त होते हैं, वह उत्साह देता है। सच्चा मित्र हमारे लिए शक्तिवर्धक औषधि बनकर सामने आता है। वह हमें पथभ्रष्ट होने से भी बचाता है और सन्मार्ग की ओर अग्रसर करता है। सच्चा मित्र | सरलता से नहीं मिलता। इसलिए मित्र का चुनाव सोच-समझकर करना चाहिए। केवल बाहरी चमक-दमक, वाक्प टुता अथवा आर्थिक स्थिति को देखकर ही मित्र का चयन कर लेना उचित नहीं है, इसके लिए उसके व्यवहार, आचरण तथा अन्य बातों पर ध्यान देना आवश्यक होता है। सच्चा मित्र सच्चरित्र, विनम्र, सदाचारी तथा विश्वास पात्र होना चाहिए, क्योंकि सच्ची मित्रता मनुष्य के लिए वरदान है। किसी ने ठीक ही कहा है- ‘सच्चा प्रेम दुर्लभ है, सच्ची मित्रता उससे भी दुर्लभ।’
निबंध नंबर : 02
मेरा सच्चा मित्र
Mera Sacha Mitra 
मित्रता का यह सिद्धान्त है कि मित्र कम भले ही हों, लेकिन जो भी हों विश्वासपात्र हों। ऐसे मित्र सर्वत्र नहीं मिल पाते, ढूंढ़ने पर ही मिलते हैं। अगर आपके पास मित्रों पर उड़ाने के लिए पर्याप्त पैसा हो, तो सैकड़ों मित्र बन जाएंगे। और अगर आप गरीबी में जीवन बिता रहे हों तो बहुत कम लोगों को आपकी चिन्ता होगी।
दुनिया में ऐसे बहुत से व्यक्ति होंगे जो आपके प्रति सद्भावना रखते होंगे, लेकिन उन्हें मित्रता के योग्य नहीं माना जा सकता। उनमें से बहुत-से स्वार्थी भी हो सकते हैं, जो मौका पड़ने पर बड़ी आसानी से मुंह फेर सकते हैं।
सच्चे मित्र की पहचान किसी विपत्ति या दुःख के समय ही हो सकती है। सुख व समृद्धि के समय तो सैकड़ों लोग मित्र होने का दावा करते रहते हैं, लेकिन परेशानी या दुःख के समय बहुत गिने-चुने लोग ही पास दिखाई देंगे। वही ऐसे लोग हैं जिन्हें सच्चे अर्थों में दोस्त कहा जा सकता है। बहुत-से लोग बेहद स्वार्थी होते हैं और वे अपना मतलब सिद्ध करना अच्छी तरह जानते हैं। उनके मन में सहानुभूति या सद्भावना का नाम लेश-मात्र भी नहीं होता। वे तो बस औरों का शोषण करना जानते हैं, इसलिए अच्छे मित्र के लिए हमें काफी भटकना पड़ता है।
मेरे कुल चार मित्र ऐसे हैं जो मुसीबत के समय कसौटी पर खरे उतरे हैं। उनमें भी श्री गोविन्द लाल सबसे अधिक विश्वासपात्र सिद्ध हुए। एक बार की बात है, मैं बस में सफर कर रहा था, कि अचानक मेरी जेब कट गई। वह मेरे साथ थे। उन्होंने बडी बहादुरी के साथ आगे बढ़कर जेबकतरे को पकड़ लिया और उससे मेरा मनीबैग छीनकर मुझे दे दिया। उसके बाद उस जेबकतरे को पुलिस चौकी ले जाकर उन्होंने पुलिस के हवाले कर दिया। इस तरह उन्होंने मेरा धन और जीवन दोनों की रक्षा की। उस दिन के बाद से हम दोनों अभिन्न मित्र हो गए। वे एक धनी पिता की सन्तान हैं। उनके पिता एक बहुत बड़ी फैक्ट्री के मालिक हैं, लेकिन वे बड़े वीर, स्पष्टवक्ता और ईमानदार भी हैं।
मैं न तो झूठ बोलता हूँ और न झूठ बोलने वालों को पसन्द करता हूँ। श्री गोविन्द लाल एक सच्चे इन्सान हैं और सच्चाई में ही उनका विश्वास है। संयोग से वह मेरे सहपाठी भी हैं।
पढ़ने में वह मुझसे काफी कमजोर हैं, इसलिए हर रोज शाम को मैं उनकी सहायता खुले दिल से करने को तत्पर रहता हूँ। हम लोग घूमने-फिरने भी साथ-साथ जाते हैं। गोविन्द लाल को कहानी सुनाने का बहुत शौक है। मुझे भी वे अजीबो-गरीब कहानियां सुनाते रहते हैं। वह मेरे घर भी आते हैं और मेरी मां उन्हें सगे बेटे के तरह स्नेह करती हैं।
श्री गोविन्द लाल अपनी पढ़ाई के प्रति बेहद मुस्तैद हैं, लेकिन पढ़ाई में मेरी मदद की उन्हें बड़ी आवश्यकता पड़ती है। चूंकि मेरी दृष्टि में वह छल-कपट से दूर एक निश्छल इन्सान हैं, इसलिए मैं भी हरदम उनकी मदद के लिए तैयार रहता हूँ। मैं भी प्रायः उनके घर जाता रहता हूँ और हम दोनों घण्टों साथ-साथ रहते हैं।

पढ़ना-लिखना सीखो ओ मेहनत करने वालों

  • शिक्षा का महत्त्व • साक्षरता अभियान • अभियान में कठिनाइयाँ • संचार माध्यमों का सहयोग
शिक्षा कामधेनु के समान है जो मनुष्य की सभी इच्छाओं को प्रतिफलित करती है। शिक्षा के महत्त्व एवं आवश्यकता को देखते हुए प्रत्येक व्यक्ति की कामना होती है कि वह समय से पढ़-लिखकर परिवार एवं देश की उन्नति में सहयोग दे। किंतु भारत की पराधीनता ने शिक्षा के क्षेत्र के विकास में अनेक रुकावटें खड़ी कर दी, जिससे भारत की अधिकतर प्रौढ़ जनसंख्या अशिक्षित एवं निरक्षर रह गई। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भी शिक्षण संस्थाओं की कमी एवं धनाभाव के कारण सबके लिए शिक्षा जुटा पाने में सरकार के सामने अनेक चुनौतियाँ थीं, फिर प्रौढ़ व्यक्तियों के लिए अभियान आरंभ करना आसान नहीं था और प्रौढ वर्ग के अशिक्षित होने के कारण देश की प्रगति की गति भी | अत्यंत धीमी थी। अतः सरकार ने 2 अक्तूबर सन् 1978 को प्रौढ़ व्यक्तियों को शिक्षित करने के लिए एक अभियान
आरंभ किया, जिसमें 15 वर्ष से 35 वर्ष तक के स्त्री-पुरुषों को साक्षर एवं शिक्षित बनाने का निर्णय लिया गया। इस आयु वर्ग के स्त्री-पुरुष किसी न किसी आजीविका अर्जन कार्य से संबंधित होते हैं। अतः इसको ध्यान में रखकर सरकार एवं सामाजिक संस्थाओं ने सायंकालीन कक्षाएँ एवं विद्यालय खोले हैं। स्त्रियों की सुविधा के लिए दोपहर को भी कक्षाएँ लगाई जाती हैं।ऐसी शिक्षा चाहिए हमें करे भारत का नव-निर्माण
जिस शिक्षा से मिट जाए, जन मानस में फैला अंधकार
साक्षरता अभियान के अंतर्गत जनसंचार माध्यमों- दूरदर्शन एवं आकाशवाणी भी प्रौढों को प्रोत्साहित करने | के लिए विभिन्न कार्यक्रम आयोजित करते हैं तथा ‘पढ़ना-लिखना सीखो, ओ मेहनत करने वालों’ तथा ‘पढ़-लिख, लिख-पढ बन होशियार’, जैसे गीतों द्वारा प्रौढ़ों को पढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। ये अत्यंत सराहनीय कार्य हैं। स्वतंत्रता-प्राप्ति से पूर्व हमारे देश में शिक्षा-व्यवस्था अत्यंत खराब थी, शिक्षण संस्थाएँ नगण्य थीं, बहुत कम थीं. अतः सब उनका लाभ नहीं उठा पाते थे। इसीलिए भारत की अधिकतर जनसंख्या अशिक्षित थी जिससे देश की प्रगति भी अत्यंत धीमी थी। आजकल ‘एक से एक को शिक्षा’ जैसे कार्यक्रम चलाकर प्रौढ़ शिक्षा को बढ़ावा दिया जा रहा है, सफल बनाने का प्रयास किया जा रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा शहरों में यह अभियान अत्यंत सफल रहा है। प्रौढ शिक्षा को सफल बनाने के लिए इसे राजनैतिक हस्तक्षेप से मुक्त रखना आवश्यक है।

विद्यार्थी और अनुशासन

  • अनुशासन का अर्थ • विद्यार्थी के जीवन में अनुशासन का महत्त्व • दोनों एक-दूसरे के पूरक
जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अनुशासन की आवश्यकता होती है, क्योंकि अनुशासन के बिना शासन संभव नहीं। ‘अनुशासन’ का शाब्दिक अर्थ है-नियंत्रक द्वारा बनाए गए नियमों का अनुगमन करना अर्थात् पीछे-पीछे चलना, यदि और स्पष्ट रूप से कहें तो अनुशासन का अर्थ “व्यक्ति के विभिन्न क्रिया-कलापों को एक सीमा में बाँधना है, जो समाज, राष्ट्र, राज्य, संस्था एवं स्वयं उसके लिए कल्याणकारी हों।” विद्यार्थी जीवन में अनुशासन का विशेष महत्त्व है। आज के नागरिक कल के नेता हैं, उन्हें ही देश की पतवार सँभालनी है। अतः विद्यार्थियों का समुचित विकास आवश्यक है। वास्तव में विद्यार्थी-जीवन का आदर्श ही अनुशासन है, क्योंकि यही जीवन का निर्माण-काल है।यही तुम्हारा समय ज्ञान संचय करने का,
संयमशील, सुशील सदाचारी बनने का।
यह सब संभव हो सकता यदि अनुशासन हो,
मन में प्रेम, बड़ों का आदर, श्रद्धा का आसन हो ।।
हर समय कुछ-न-कुछ सीखने के लिए विद्यार्थी-जीवन ही सर्वोत्तम अवस्था है। जो विद्यार्थी प्रारंभिक अवस्था से अनुशासन का पालन करते हैं, उन्हें कभी असफलता का मुँह नहीं देखना पड़ता। किसी ने ठीक ही कहा हैअनुशासन सफलता की कुंजी है। अनुशासनहीनता मनुष्य को स्वार्थी एवं आलसी बना देती है। हमारा सामाजिक, राजनैतिक और नैतिक विकास रुक जाता है। अनुशासनहीनता के कारण ही समाज में अपराधीकरण बढ़ता है। विद्यार्थियों पर भी इसका प्रभाव पड़ता है। वे माता-पिता एवं गुरुजनों की अवज्ञा करने लगते हैं। आज उन्हें देश-समाज आदि की चिंता नहीं है, उन्हें किसी से सहानुभूति भी नहीं है और उनका आचरण दिन-प्रतिदिन बद से बदतर होता जा रहा है।

विद्यार्थियों पर टीवी का प्रभाव

  • प्रस्तावना • मनोरंजन के साधन के रूप में • शिक्षा के माध्यम के रूप में • निष्कर्ष
टेलीविज़न की लोकप्रियता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। यह हमारे मनोरंजन का आधुनिकतम एव सरा साधन है। इसने हमारे दैनिक जीवन, रहन-सहन पर भी प्रभाव डाला है। इस पर अनेक प्रकार के रोचक कार्यक्रमटेलीफ़िल्में, धारावाहिक, चित्रहार, चित्रगीत, संगीत, नाटक, कवि-सम्मेलन एवं खेल-जगत आदि कार्यक्रम प्रसारित होते हैं, जिनसे हमारा पर्याप्त मनोरंजन होता है। दूरदर्शन शिक्षा का सशक्त माध्यम है। इस पर औपचारिक एवं अनौपचारिक दोनों प्रकार की शिक्षाएँ दी जा रही हैं। स्कूली विद्यार्थियों के लिए नियमित पाठों का प्रसारण किया जाता है। प्रयोगात्मक ढंग से पाठों को सुरुचिपूर्ण तरीके से समझाया जाता है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग एवं इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय के माध्यम से विद्यार्थियों को प्रतिदिन किसी-न-किसी विषय के कार्यक्रम दिखाए जाते हैं। इन कार्यक्रमों के माध्यम से विद्यार्थियों को अपने विषय की नवीन-से-नवीन जानकारी प्राप्त होती है। दूरदर्शन पर राष्ट्रीय चैनलों के अतिरिक्त अन्य प्राइवेट चैनलों की भरमार है जिन पर अनेक रुचिकर कार्यक्रम प्रसारित किए जाते हैं। कुछ कार्यक्रम सीधे विद्यार्थी वर्ग से न जुड़े होकर भी उनके ज्ञान का विस्तार करते हैं; जैसे-कौन बनेगा करोड़पति, फैमिली फ़ॉर्म्युन आदि । बोर्नविटा क्विज आदि कार्यक्रम तो विशेष रूप से विद्यार्थियों के सामान्य ज्ञान को बढ़ाने के लिए ही बनाए गए हैं।

चमत्कार विज्ञान जगत् का, और मनोरंजन जन साधन
चारों ओर हो रहा जग में, आज दूरदर्शन का अभिनंदन
दूर्भाग्य से दूरदर्शन ने विद्यार्थियों की पढ़ने की आदतों पर बुरा प्रभाव डाला है, जिससे उनकी चिंतन-मनन की क्षमता को ठेस पहुँची है और वे अच्छाई-बुराई में अंतर करना भूल गए हैं। वे केवल क्षणिक-चित्रों और शब्द-६ वनियों के जाद में बँधकर रह गए हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि छात्र आवश्यकता से अधिक दूरदर्शन के कार्यक्रमों का अवलोकन न करें। प्रतिदिन अधिक-से-अधिक एक घंटा ही कार्यक्रमों को देखें और अपनी चिंतन-मनन की शक्ति को ठेस न पहुँचाएँ । नियमित अभ्यास ही उन्हें लक्ष्य-प्राप्ति की ओर अग्रसर करेगा।

समय का सदुपयोग

  • समय की परख ० समय के सम्मान से ही सफलता • समय की पालक प्रकृति
एक बार महात्मा गांधी से किसी ने पूछा कि “जीवन की सफलता का श्रेय आप किसे देते हैं–शिक्षा, शक्ति । अथवा धन को।” उत्तर मिला-“ये वस्तुएँ जीवन को सफल बनाने में सहायक अवश्य हैं, परंतु सबसे महत्त्वपूर्ण । है-समय की परख। जिसने समय की परख करना सीख लिया उसने जीने की कला सीख ली।” जो लोग उचित समय पर उचित कार्य करने की योजना बनाते हैं, वे ही समय के महत्त्व को जानते हैं। जो व्यक्ति समय को नष्ट करता है, समय उसे नष्ट कर देता है। समय कभी रुकता नहीं है, वह सम्मान माँगता है। जो जाति समय का सम्मान करना जानती । है, वह अपनी शक्ति कई गुना बढ़ा लेती है और विश्व की प्रमुख सत्ता बन बैठती है। फ्रैंकलिन के अनुसार-समय का सदुपयोग करने से जीवन में निश्चितता आती है, सब कार्य सुचारु रूप से होते चले जाते हैं। प्रत्येक कार्य के लिए समय मिल जाता है, चित्त शांत एवं प्रसन्न रहता है। धरती, सूर्य, चाँद-तारे, यहाँ तक कि संपूर्ण प्रकृति समय का पालन करती है तो मनुष्य को भी उसका अनुसरण करना चाहिए। जीवन का एक-एक पल मूल्यवान है। समय मनुष्य का सबसे बड़ा धन है। युद्ध में एक मिनट खो देना सब कुछ खो देना है। अंग्रेजी की एक कहावत है कि “समय तथा समुद्र की लहरें किसी की प्रतीक्षा नहीं करतीं।” इस संसार में सबसे अमूल्य है समय। जो इसे नष्ट करता है वह स्वयं नष्ट हो जाता है।
है समय नदी की बाढ़ कि जिसमें, सब बह जाया करते हैं।
है समय बड़ा तूफ़ान प्रबल, पर्वत झुक जाया करते हैं। ।
इस संसार में सभी वस्तुओं को घटाया और बढ़ाया जा सकता है, पर समय को नहीं। समय किसी के अधीन नहीं।  न वह रुकता है और न वह किसी की प्रतीक्षा करता है । कबीर के अनुसार जो लोग दिन खा-पीकर और रात सो कर गुजार देते हैं वे हीरे जैसे अनमोल जीवन को कौड़ियों के मूल्य बेच देते हैं। ऐसे लोग, अंत में पछताते रह जाते हैं। समय एक ऐसा देवता है यदि वह प्रसन्न हो जाए तो इंसान को उन्नति के शिखर तक पहुँचा देता है, यदि नाराज़ हो जाए तो इंसान को पतन के गर्त में गिरा देता है। अतः इस मूल्यवान समय का हमें हमेशा सदुपयोग करना चाहिए ।

माता-पिता की शिक्षा में भूमिका

माता-पिता संतान के जन्मदाता ही नहीं, सब कुछ होते हैं। भारतीय परंपरा तो माँ के चरणों में स्वर्ग मानती है ।भारतीय परम्परा मई अभिभावकों की अहम् भूमिका रही है-बच्चे के व्यक्तित्व-निर्माण में। आज भारतीय जीवन  में पाश्चात्य सभ्यता के  प्रभाव से भौतिकवादी बुधिप्रधान दृष्टिकोण व्याप्त हो रहा है। सामाजिक परिवेश में परिवर्तन आ रहा है। आज माता-पिता की संतान से आकांक्षाएँ भारतीय मूल से परिवर्तित रूप में प्रकट हो रहा है। संतान भी पाश्चात्य प्रभाव से प्रभावित होकर अधिकारों का रोना रो रही हैं, कर्तव्य नाम की चीज तो आज की संतान के शब्दकोश में है ही नहीं। माता-पिता को संतान की शिक्षा-प्राप्ति में अहम भूमिका निभानी होती है। माता-पिता को अपने बच्चों की शिक्षा से संबंधित सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करने के साथ-साथ उनको स्वतंत्र-चिंतन, कार्य-पद्धति तथा व्यवहार की छूट देनी होगी।
अपरिपक्व बुधि को परिपक्व होने में अपना संयम-पूर्ण योगदान देना होगा। आज की व्यस्त जिंदगी में अभिभावकों को समय निकालकर भौतिक सुखों के साथ अपनी मौजूदगी का अहसास बच्चों में भरना होगा। अपनी आवश्यकता थोपने के स्थान पर अहसास की भावना भरनी होगी। विचारों में समन्वय करना होगा। प्रसाद जी ने मानो माता-पिता को यही संदेश देते हुए कहा है-आँसु के भीगे अंचल पर, मन का सब कुछ रखना होगा।
तुमको अपनी स्मित रेखा से, यह संधि पत्र लिखना होगा।।
वास्तव में पाश्चात्य सभ्यता ‘मैं’ की उपासिका है। वह व्यक्ति के मूल्य को अंकित करती है परिवार के नहीं। जबकि भारतीय संस्कृति पूरे विश्व को परिवार समझने की पक्षधर है। दोनों सभ्यताओं में अंतर ही आज की समस्याओं की जड है। माता-पिता ने जीवन की दौड़ में दौड़कर ‘अनुभव’ के जो रत्न प्राप्त किए हैं, आज की संतान उन रत्नों से लाभ नहीं उठाना चाहती। वह स्वयं गलत या सही अनुभव करना चाहती है। इसलिए माता-पिता को अपने अनुभव बताने चाहिए, लादने नहीं।

नैतिक शिक्षा का महत्व

‘नैतिकता’ से अभिप्राय है-आचरण की शुद्धता तथा आदर्श मानवीय मूल्यों को अपनाना। सत्य, अहिंसा, प्रेम, सौहार्द, बड़ों का सम्मान, अनुशासन-पालन, दुर्बल एवं दीन-हीनों पर दया तथा परोपकार आदि गुणों को अपनाना ही नैतिकता का वरण करना है। सभी प्राणियों में ईश्वर का नूर देखना, न्याय-पथ पर चलना, शिष्टाचार का पालन करना- कुछ ऐसे मूल्य हैं जिनका वर्णन प्रत्येक धर्मग्रंथ में मिलता है। धर्म-प्रवर्तकों एवं महान पुरुषों के जीवन से भी हमें नैतिकता को अपनाने की प्रेरणा मिलती है। श्रीराम, श्रीकृष्ण, भगवान बुद्ध, ईसा मसीह, मुहम्मद साहब, गांधीजी, मदर टेरेसा, विवेकानंद, महावीर स्वामी सभी ने प्राणिमात्र से प्रेम करने की शिक्षा दी है। बेवजह किसी को कष्ट न देना, अहिंसा का पालन करना, रोगियों, असहायों एवं अपाहिजों की सहायता करना हमारा नैतिक कर्तव्य है। ‘जीवों पर दया करो’, ‘पर्यावरण की रक्षा करो’, ‘अहिंसा परम धर्म है’, ‘अपने पड़ोसी से प्रेम करो’, ‘वसुधैव कुटुंबकम्’, ‘जियो और जीने दो’, आदि विभिन्न धर्मों के ऐसे सूक्ति-वाक्य हैं जो हमें नैतिक मार्ग पर अग्रसर होने की निरंतर प्रेरणा देते हैं। बोर्डमैन के अनुसार-कर्म को बोओ और आदत की फसल काटे,

आदत को बोओ और चरित्र की फसल काटो,
चरित्र को बोओ और भाग्य की फसल काटो।
नैतिकता को अपनाने से अभिप्राय उपर्युक्त मानवीय मूल्यों को सम्मानपूर्वक अपनाने से है। वर्तमान समय में भौतिकवाद का बोलबाला है। भौतिक उन्नति की ओर अग्रसर मानव ने नैतिक मूल्यों को ताक़ पर रख दिया है। परिणामस्वरूप समाज में आतंक, भ्रष्यचार, हिंसा एवं अपराध बढ़ रहे हैं। भौतिक सुखों के लिए अनैतिकता और अराजकता को बढ़ावा देकर रावण की लंका का ही निर्माण किया जा सकता है, परंतु स्वर्ग के समान सुख, शांति एवं समृधि तो नैतिकता के बल पर ही स्थापित की जा सकती है। अत: आज के परिवेश में नैतिक शिक्षा की अत्यंत आवश्यकता है। नैतिक शिक्षा को शिक्षण संस्थाओं में अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए। वर्तमान शिक्षा-प्रणाली में नैतिक शिक्षा को स्थान नहीं दिया गया है। प्राथमिक स्तर से ही नैतिक शिक्षा को अनिवार्य करके विद्यार्थियों के राष्ट्रीय चरित्र एवं नैतिक चरित्र के निर्माण में सहयोग देना चाहिए तथा इसके व्यावहारिक पक्ष पर भी। बल देना चाहिए क्योंकि कोई शिक्षा तब तक कारगर सिद्ध नहीं होती जब तक उसे व्यवहार में न लाया जाए। शिक्षक वर्ग को भी नैतिक गुणों को अपनाना चाहिए क्योंकि उनके आचरण एवं चरित्र का सीधा प्रभाव विद्यार्थियों पर पड़ता है।
निबंध नंबर :- 02
नैतिक-शिक्षा का महत्त्व
Naitik Shiksha ka Mahatva 
आधानिक युग में नैतिकता और उसके रक्षक-संर्वद्धक तत्त्वों का पूर्णतया हास बलिक सीहो चका है। नैतिकता किस चिड़िया का नाम होता या हो सकता है, आम खास किसी को इस का अहसास या ज्ञान तक नहीं रह गया है। लगता है, नैतिकता नामक पटिया को मार और भून कर लोग खा तो चुके ही हैं, हज्म तक कर चुके हैं और वह भी बिना किसी डकार लिए। इस का मुख्य कारण स्वतंत्रता प्राप्त करने वाली पीढ़ी के समाप्त हो जाने के बाद मचने वाली लूट-पाट, आपाधापी और आदर्शहीनता ही है। इस से भी बड़ा कारण है उस तरह का राष्ट्रीय चरित्र निर्माण करने वाली शिक्षा का सर्वथा अभाव और नैतिकता और उसके मूल्यों को जगाए रखने की अवगत प्रेरणा बनी रहा करती है। पर नहीं, हमारे नेतृवर्ग ने स्वतंत्र भारत में इस सब की व्यवस्था करने के दायित्व निर्वाह की ओर कतई कोई ध्यान नहीं दिया। नैतिकता और नैतिक शिक्षा का महत्त्व इस तथ्य से भली भांति परिचित रहते हुए भी सर्वथा भुला दिया गया कि राष्ट्र-निर्माण और सुरक्षा के लिए एक प्रकार के राष्ट्रीय चरित्र की आवश्यकता रहा करती है। वह नैतिक जागृति रहने पर ही संभव हुआ करता है।
उपर्युक्त तथ्यों के आलोक में ही सहज ही देखा, परखा और समझा जा सकता है कि किसी भी युग में नैतिक शिक्षा का क्या महत्त्व हुआ करता है। उसकी कितनी अधिक आवश्यकता हुआ करती है। आज हमारा देश जिस संक्रमण काल से गुजर रहा है, जिस तरह की अपसंस्कृति और मूल्यहीनता का शिकार होकर अनवरत हीन बल्कि निकृष्टतम अमानवीय मनोवृत्तियों का अखाड़ा बन कर रह गया है, इसमें नैतिक शिक्षा का महत्त्व एवं आवश्यकता और भी बढ़ गई है। आज जिस प्रकार की शिक्षा स्कूलों-कॉलेजों में दी जा रही है, वह साक्षर तो जरूर बना देती है, सुशिक्षित क्या मात्र शिक्षित भी नहीं बना पाती। ऐसे में उसके द्वारा नैतिक मानों-मल्यों की रक्षा तो क्या करना, वह व्यक्ति का साधारण मनुष्य तक बने रहने की प्रेरणा भी दे पाने में असमर्थ है। इसी कारण आज यह बात बड़ी तीव्रता से अनुभव की जा रही है कि बाकी शिक्षा के साथ-साथ, बाल्क उस से भी पहले नैतिक शिक्षा की व्यवस्था करना बड़ा ही आवश्यक है।
आज भारत में जिधर भी दृष्टिपात कर के देखिए, चारों ओर कई प्रकार के भ्रष्टाचारी का एकाधिकार छा रहा है। नैतिकता और साँस्कतिक आयोजनों की आड़ में अनैतिकता और अनाचार का पोषण कर उसे हर प्रकार से बढ़ावा दिया जा रहा है। हर तरफ भ्रष्ट मूल्यों वालों का बोल बाला हो रहा है पश्चिम की भौंडी नकल के फलस्वरूप अपसंस्कृति अपमूल्यों, नग्नता का प्रचार इतना बढ़ गया है कि उसका कहीं कोई किनारा तल दिखाई नहीं देता। चारों ओर कामुकता, हिंसा और वासना का नंगा नाच हो रहा है। सुनहरे सपने बेचने वाले सौदागरों ने माँस-मज्जागत लज्जा तक का अपहरण कर के मानवता की उदात भावनाओं को शरे-आम नंगा कर के खड़ी कर दिया है। सहज मानवीय सम्बन्ध तक दरारे जाकर भुरभुराने लगे और टूट का गिर पड़ने को उतावले नजर आ रहे हैं। अराजक और माफिया-गिरोहों को धार्मिक, सांप्रदायिक और राजनीतिक संरक्षण प्राप्त हो जाने के कारण अच्छाई भरा आचरण तो क्या करना, उसका नाम तक ले पाना सुरक्षित नहीं समझा जाता। व्यापारिक दृष्टिकोण और आर्थिक तत्त्वों की प्रधानता ने मानवीयता का गला घोंट कर रख दिया है। फलतः चारों ओर एक प्रकार की कृत्रिमता. मात्र औपचारिकता का ही साम्राज्य छा रहा है। ऐसे वातावरण की सफलता पर प्रहार करने की क्षमता केवल आत्मिक स्तर तक नैतिक बन कर ही किया जा सकता है। नैतिक बनने – के लिए उस तरह की शिक्षा की स्पष्ट आवश्यकता तो है ही, सभी तरह के उपलब्ध उपकरणों – मानवीय मूल्यों को शुद्ध करना भी परमावश्यक है।
नैतिक शिक्षा व्यक्ति को उदार मानव तो बनाया ही करती है, एक तरह का राष्ट्रीय – चरित्र बनाने और विकसित करने में भी सहायक हो सकती है। उसके विकसित होने पर ही अपसंस्कृति, आरोपित और आयातित मूल्यों से छूटकारा पाकर अपनी संस्कृति. अपने राष्ट्रीय तत्त्वों, मल्यों एवं मानो को विकसित कर के समग्र राष्ट्रीयता का उदात तथा उच्च स्थितियों तक पहुँचाया जा सकता है। नैतिक मूल्यो-मानों को विकसित किए। बिना अन्य सभी प्रकार के विकास एक प्रकार से व्यर्थ ही हैं। उनका वास्तविक लाभ वहाँ तक पहुँच ही नहीं सकता कि जिन के लिए सारे आयोजन किए जाते हैं। इतना ही नहीं नैतिक शिक्षा द्वारा नैतिक एवं राष्ट्रीय मूल्यों का विकास किए बिना राष्ट्र की सुरक्षा तक को निश्चित कर पाना संभव नहीं कहा माना जा सकता।
कभी भारत का सारे संसार में जो गुरुवत् मान-सम्मान किया जाता था, वह उसके उदात मानवीय मूल्यों के कारण ही किया जाता था। लेकिन आज देश-विदेश सभी जगह प्रत्येक स्तर पर भारतीयता को हेय एवं त्याज्य माना जाने लगा है। उसकी आवाज का कहीं कोई मूल्य एवं महत्त्व नहीं रह गया। नेतृवर्ग ने विदेशों से ऋण-पर-ण लेकर यहाँ की अस्मिता का दीवालियापन तो घोषित कर ही दिया है, भिखारी जैसा भी बना दिया है। इस प्रकार की विषमताओं पर नैतिक बल और साहस अर्जित कर के ही पार पाया जा सकता है। इसके लिए सब से पहले तो राष्ट्र के नेतृत्व या नेतृ वर्ग को नैतिक रूप से शिक्षित बनाना परम आवश्यक है, बाद में समूचे राष्ट्र जन को जितनी जल्दी यह कार्य आरम्भ कर दिया जाएगा, उतना ही राष्ट्र और राष्ट्र जन का हित-साधन संभव हो पाएगा। कहावत भी है कि शुभस्य शीघ्रम, अर्थात् शुभ कार्य में देर नहीं करनी चाहिए।

भाग्य और पुरुषार्थ

हमारे समाज में दो प्रकार की मान्यताएँ प्रचलित हैं- पहली भाग्यवाद तथा दूसरी पुरुषार्थवाद। भाग्यवादियों का विचार है कि किस्मत में जो कुछ लिखा है वह सब मिल जाएगा। ऐसे व्यक्ति न तो कोई काम करते हैं और न ही किसी काम के प्रति उनमें कोई उत्साह जागता है। दूसरी श्रेणी के व्यक्ति पुरुषार्थवादी होते हैं जिनका ध्येय है प्रमाद को छोड़ कर्मरत रहना। कर्म करते समय वे इस बात की परवाह नहीं करते कि देखने वाले लोग उनके बारे में क्या कह रहे हैं। वे स्वयं लक्ष्य निर्धारित करते हैं और स्वयं उसकी प्राप्ति हेतु प्रयासरत हो जाते हैं। इतिहास इस बात का साक्षी है। कि जिन लोगों ने अपने जीवन में उन्नति की है उन्होंने उद्यम के बल पर ही की है। संसार में जितनी प्रकार की आर्थिक, औद्योगिक, व्यावसायिक उन्नतियाँ हुई हैं उसके पीछे एक ही कहानी है निरंतर प्रयास और सफलता । पुरुषार्थ सदैव भाग्य से अधिक शक्तिशाली है। महाराणा प्रताप ने पुरुषार्थ के बल पर दोबारा अपना खोया हुआ राज्य प्राप्त किया था। कालिदास घोर परिश्रम से एक मूर्ख से विद्वान बने । साधनहीन लाल बहादुर शास्त्री देश के प्रधानमंत्री बने। अंतरिक्ष में मानव की जीत, चाँद पर उसका घूम आना किस बात का प्रतीक है? भाग्य या पुरुषार्थ ? विजय सर्वत्र कर्मवीर की ही होती है क्योंकि- “सकल पदारथ हैं जग माहीं, कर्महीन नर पावत नाहीं।” उठो! चलो ! इन सँकरी-कटीली रातों के बीच तुम्हारा हाथ पकड़कर रास्ता दिखाने-बताने के लिए कोई देवदूत आने वाला नहीं है।
तुम्हारे सूखे कंठ को शीतल पानी अथवा शर्बत से तर करके तथा रास्ते में बिखरे कंकड़-पत्थरों को चुनकर तुम्हें सीधे -सहज सड़क पर ले जाने वाला कोई ईश्वरीय प्रतिनिधि आने वाला नहीं है। इन रास्तों के पत्थरों और कंकड़ों को हँदकर और काँटों को कुचलकर तुम्हें ही साहसपूर्वक अपनी मंजिल की ओर बढ़ना है। भाग्य के भरोसे बैठने वाले कभी सफलता के स्वर्ण-शृंगों पर अपने झंडे नहीं लहरा पाते। याद रखिए- ईश्वर भी सदैव उन्हीं कर्मवीरों के साथ साए की तरह रहता है जो लाभ-हानि और कष्ट-पीड़ा की चिंता किए बिना, जो पैरों की थकान की उपेक्षा करते हुए निरंतर आगे बढ़ा करते हैं। भाग्य के सहारे बैठने वाले निकम्मे और निराश-हताश ऐसे कायर लोग होते हैं जो कभी यह नहीं कहते-“जैसा मैं चाहूँगा, वैसा ही होगा।”

भाग्य और पुरुषार्थ

हमारे समाज में दो प्रकार की मान्यताएँ प्रचलित हैं- पहली भाग्यवाद तथा दूसरी पुरुषार्थवाद। भाग्यवादियों का विचार है कि किस्मत में जो कुछ लिखा है वह सब मिल जाएगा। ऐसे व्यक्ति न तो कोई काम करते हैं और न ही किसी काम के प्रति उनमें कोई उत्साह जागता है। दूसरी श्रेणी के व्यक्ति पुरुषार्थवादी होते हैं जिनका ध्येय है प्रमाद को छोड़ कर्मरत रहना। कर्म करते समय वे इस बात की परवाह नहीं करते कि देखने वाले लोग उनके बारे में क्या कह रहे हैं। वे स्वयं लक्ष्य निर्धारित करते हैं और स्वयं उसकी प्राप्ति हेतु प्रयासरत हो जाते हैं। इतिहास इस बात का साक्षी है। कि जिन लोगों ने अपने जीवन में उन्नति की है उन्होंने उद्यम के बल पर ही की है। संसार में जितनी प्रकार की आर्थिक, औद्योगिक, व्यावसायिक उन्नतियाँ हुई हैं उसके पीछे एक ही कहानी है निरंतर प्रयास और सफलता । पुरुषार्थ सदैव भाग्य से अधिक शक्तिशाली है। महाराणा प्रताप ने पुरुषार्थ के बल पर दोबारा अपना खोया हुआ राज्य प्राप्त किया था। कालिदास घोर परिश्रम से एक मूर्ख से विद्वान बने । साधनहीन लाल बहादुर शास्त्री देश के प्रधानमंत्री बने। अंतरिक्ष में मानव की जीत, चाँद पर उसका घूम आना किस बात का प्रतीक है? भाग्य या पुरुषार्थ ? विजय सर्वत्र कर्मवीर की ही होती है क्योंकि- “सकल पदारथ हैं जग माहीं, कर्महीन नर पावत नाहीं।” उठो! चलो ! इन सँकरी-कटीली रातों के बीच तुम्हारा हाथ पकड़कर रास्ता दिखाने-बताने के लिए कोई देवदूत आने वाला नहीं है।
तुम्हारे सूखे कंठ को शीतल पानी अथवा शर्बत से तर करके तथा रास्ते में बिखरे कंकड़-पत्थरों को चुनकर तुम्हें सीधे -सहज सड़क पर ले जाने वाला कोई ईश्वरीय प्रतिनिधि आने वाला नहीं है। इन रास्तों के पत्थरों और कंकड़ों को हँदकर और काँटों को कुचलकर तुम्हें ही साहसपूर्वक अपनी मंजिल की ओर बढ़ना है। भाग्य के भरोसे बैठने वाले कभी सफलता के स्वर्ण-शृंगों पर अपने झंडे नहीं लहरा पाते। याद रखिए- ईश्वर भी सदैव उन्हीं कर्मवीरों के साथ साए की तरह रहता है जो लाभ-हानि और कष्ट-पीड़ा की चिंता किए बिना, जो पैरों की थकान की उपेक्षा करते हुए निरंतर आगे बढ़ा करते हैं। भाग्य के सहारे बैठने वाले निकम्मे और निराश-हताश ऐसे कायर लोग होते हैं जो कभी यह नहीं कहते-“जैसा मैं चाहूँगा, वैसा ही होगा।”

डा. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम

वे शुद्ध पायलट बनना चाहते थे। वैज्ञानिक बन गये। उनके पिता उन्हें कलक्टर बनाना चाहते थे। पर वे राष्ट्रपति बन गये। यानी कुछ भी न उनकी मर्जी का हुआ न उनके पिता की मर्जी की। फिर भी उन्होंने बेमर्जी के जो कुछ किया उससे देश का गौरव बढ़ा और वे भारतरत्न’ बन गये। इसके बीच बहत कुछ बदलता गया, लेकिन नहीं बदली ती उनकी सादगी  डा. अबुल फाफिर जैनुल आबेदिन अब्दुल कलाम यानी डी. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम का जन्म तमिलनाडु में रामेश्वरम जिले के धनुष कोडि गाँव में 15 अक्तूबर, सन् 1931 ई.को हुआ।प्राथमिक शाला की पढ़ाई पूरी करने के बाद डा. कलाम को हायर सेकेंड्री की पढ़ाई के लिए रामनाथपुरम जाना पड़ा। यहाँ के स्क्वार्टज मिशनरी हाई स्कूल से हायर सेकेंड्री की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। लेकिन हायर सेकेंड्री तक की पढ़ाई तो जैसे-तैसे हो गयी, मगर आगे की पढ़ाई के लिए उनके घरवालों के पास कोई आर्थिक जुगाड़ नहीं था। लेकिन कलाम के दादाजी जिन्हें कलाम अब्बू’ कहकर बुलाया करते थे, ने एक तरकीब

निकाली। उन्होंने घर में पड़े लकड़ी के कुछ तख्तों को निकाला और उनसे एक छोटी नाव बनवाई। इस नाव को उन्होंने किराये पर देना शुरू किया और इससे वसूल होने वाले किराये से अब्दल कलाम की पढ़ाई का खर्च पूरा होने लगा।
इस तरह हायर सेकेंड्री के बाद डांवाडोल हो रही पढ़ाई को आधार मिला और अदल कलाम आगे की पढ़ाई के लिए त्रिचुरापल्ली के सेंट जोसफ कॉलेज गये। छुट्टियों में कलाम दसरे छात्रों की ही तरह अपने घर चले जाया करते थे और इन छुट्टियों में वह अपने पिता के काम में हाथ बंटाते थे। एक दिन जब वह पिताजी के साथ अखबारों की छंटनी कर के थे कि उनकी नजर अंग्रेजी दैनिक ‘हिन्दू’ में छपे एक लेख पर पड़ी, जिसका शीर्षक था-‘स्पिटफायर’ यानी ‘मंत्र बाण’    दरअसल यह प्राचीन भारतीय अस्त्र का नाम था। जिसका इस्तेमाल द्वितीय विश्वयुद्ध में गठबंधन सेनाओं (मित्र राष्ट्र) ने किया था। वास्तव में यह आग्नेयास्त्र मिसाइल ही था, जिसको पढ़कर अब्दुल कलाम अन्दर तक उत्तेजित हो गये थे और सोचने लगे थे कि काश! हिन्दुस्तान के पास इस तरह के आग्नेयास्त्र होते। बाद में उनके जीवन की सफलता की सारी कहानी इसी सपने का विस्तार है।
बी.एससी. प्रथम श्रेणी से पास करने के बाद आगे की पढ़ाई जारी रखने के लिए उनके पास उसी तरह का संकट था जैसे कि हायर सेकेंड्री की पढ़ाई पूरी करने के बाद आया था। लेकिन इस बार पढ़ाई जारी रखने का जिम्मा उन्होंने खुद अपने ऊपर लिया। इसके लिए उन्होंने न केवल ट्यूशन को अपना जरिया बनाया। बल्कि बीच-बीच में मद्रास से छपने वाले अंग्रेजी दैनिक ‘हिन्दू’ के लिए विज्ञान पर कुछ लेख और फीचर भी लिखे। बी.एससी. के बाद कलाम ने मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग में प्रवेश लिया, जहाँ से उन्होंने प्रथम    श्रेणी में एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा हासिल किया। शायद यह बात बहुत लोगों को पता न हो कि कलाम साहब ने पी-एच.डी नहीं की। उनके नाम के पहले जो डॉक्टर शब्द लगा है वह मानद उपाधि के चलते लगा है।
पढ़ाई खत्म करने के बाद जब अब्दुल कलाम ने कैरियर की शुरुआत की, तो भारी दुविधा में फंस गये, क्योंकि उन दिनों वैज्ञानिकी के छात्रों की यूरोप और अमरीका में अच्छी खासी मांग थी। हाँ पैसा भी इतना मिलता था जिसकी सामान्य हिन्दुस्तान के लोग तो कल्पना भी नहीं कर सकते थे। अपनी आत्मकथा कृति ‘माई जर्नी’ में कलाम साहब ने लिखा है-जीवन के वे दिन काफी कसमसाहटभरे थे। एक तरफ विदेशों में शानदार कैरियर था, तो दूसरी तरफ देश-सेवा का आदर्श बचपन के सपनों को सच करने का मौका चुनाव करना कठिन था कि आदेशों की ओर चला जाये या मालामाल होने के अवसर को गले लगाया जाये। लेकिन अन्ततः मैंने तय किया कि पैसों के लिए विदेश नहीं जाऊँगा। कैरियर की परवाह के लिए देश-सेवा का अवसर नहीं आँवाऊँगा। इस तरह 1958 में मैं डी.आर.डी.ओ डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ऑर्गनाइजेशन) से जुड़ गया।”
डा. कलाम की पहली तेनाती डी.आर.डी.ओ. के हैदराबाद केन्द्र में हुई। पाँच सालों तक वे यहाँ पर महत्त्वपूर्ण अनुसंधानों में सहायक रहे। उन्हीं दिनों चीन ने भारत पर हमला कर दिया: 1962 के इस युद्ध में भारत को करारी हार शिकस्त झेलनी पड़ी। युद्ध के तुरन्त बाद निर्णय लिया गया कि देश की सामरिक शक्ति को नये हथियारों से सुसज्जित किया जाय। अनेक योजनाएँ बनीं, जिनके जनक डा. कलाम थे। लेकिन 1963 में उनका हैदराबाद से त्रिवेन्द्रम तबादला कर दिया गया। उनका यह तबादला विक्रम साराभाई स्पेस रिसर्च सेंटर में हुआ, जो कि इसरो (इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइजेशन) का सहयोगी संस्थान था। डा. कलाम ने 1990 तक इस केन्द्र में काम किया। अपने इस लम्बे सेवाकाल में उन्होंने देश को अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण मुकाम तक पहुँचाया। उन्हीं के नेतृत्व में भारत  कृत्रिम उपग्रहों के क्षेत्र में पहली कतार के देशों में शामिल हुआ | डा. कलाम एस. एल. बी. -3 परियोजना के निदेशक थे। 1979 में जब एस.एल.वी-3 की एक प्रायोगिक अपने ऊपर ले ली। अपने 44 साल के कैरियर में उनका हमेशा एक ही ध्येय वाक्य रहा है ‘विजन मिशन एंड गोल;  अर्थात् दृष्टिकोण ध्येय और लक्ष्य  
हम देशवासियों की ईश्वर से यही प्रार्थना है कि वह आपको चिरायु प्रदान कर  आपको और अधिक देशसेवा के लिए सक्षम और योग्य बनाये।

अटल बिहारी वाजपेयी पर हिन्दी निबंध

प्रस्तावना : पूर्व प्रधानमंत्री और ‘भारतरत्न’ अटल बिहारी वाजपेयी देश के एकमात्र ऐसे राजनेता थे, जो 4 राज्यों के 6 लोकसभा क्षेत्रों की नुमाइंदगी कर चुके थे। उत्तरप्रदेश के लखनऊ और बलरामपुर, गुजरात के गांधीनगर, मध्यप्रदेश के ग्वालियर और विदिशा और दिल्ली की नई दिल्ली संसदीय सीट से चुनाव जीतने वाले वाजपेयी इकलौते नेता हैं।जन्म व शिक्षा : अटल बिहारी वाजपेयी का जन्‍म 25 दिसंबर 1924 को हुआ, इस दिन को भारत में ‘बड़ा दिन’ कहा जाता है। उनके पिता पंडित कृष्णबिहारी वाजपेयी अध्यापन का कार्य करते थे और माता कृष्णादेवी घरेलू महिला थीं।अटलजी अपने माता-पिता की 7वीं संतान थे। उनसे बड़े 3 भाई और 3 बहनें थीं। अटलजी के बड़े भाइयों को अवधबिहारी वाजपेयी, सदाबिहारी वाजपेयी तथा प्रेमबिहारी वाजपेयी के नाम से जाना जाता है।

अटलजी बचपन से ही अंतर्मुखी और प्रतिभा संपन्न थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा सरस्वती शिक्षा मंदिर, गोरखी, बाड़ा, विद्यालय में हुई। यहां से उन्होंने 8वीं कक्षा तक की शिक्षा प्राप्त की। जब वे 5वीं कक्षा में थे, तब उन्होंने प्रथम बार भाषण दिया था। उन्हें विक्टोरिया कॉलेज में दाखिल कराया गया, जहां से उन्होंने इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई की।

कॉलेज जीवन में ही उन्होंने राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेना आरंभ कर दिया था। आरंभ में वे छात्र संगठन से जुड़े। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख कार्यकर्ता नारायण राव तरटे ने उन्हें बहुत प्रभावित किया। उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शाखा प्रभारी के रूप में कार्य किया।राजनीतिक जीवन : वाजपेयी 1942 में राजनीति में उस समय आए, जब भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उनके भाई 23 दिनों के लिए जेल गए। 1951 में आरएसएस के सहयोग से भारतीय जनसंघ पार्टी का गठन हुआ तो श्‍यामाप्रसाद मुखर्जी जैसे नेताओं के साथ अटलबिहारी वाजपेयी की अहम भूमिका रही।

वर्ष 1952 में अटल बिहारी वाजपेयी ने पहली बार लखनऊ लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा, पर सफलता नहीं मिली। वे उत्तरप्रदेश की एक लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में उतरे थे, जहां उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। अटल बिहारी वाजपेयी को पहली बार सफलता 1957 में मिली थी। 1957 में जनसंघ ने उन्हें 3 लोकसभा सीटों- लखनऊ, मथुरा और बलरामपुर से चुनाव लड़ाया। लखनऊ में वे चुनाव हार गए, मथुरा में उनकी जमानत जब्त हो गई, लेकिन बलरामपुर संसदीय सीट से चुनाव जीतकर वे लोकसभा में पहुंचे।

वाजपेयी के असाधारण व्‍यक्तित्‍व को देखकर उस समय के वर्तमान प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि आने वाले दिनों में यह व्यक्ति जरूर प्रधानमंत्री बनेगा। वाजपेयी तीसरे लोकसभा चुनाव 1962 में लखनऊ सीट से उतरे, लेकिन उन्हें जीत नहीं मिल सकी। इसके बाद वे राज्यसभा सदस्य चुने गए। बाद में 1967 में फिर लोकसभा चुनाव लड़े, लेकिन जीत नहीं सके। इसके बाद 1967 में ही उपचुनाव हुआ, जहां से वे जीतकर सांसद बने।

इसके बाद 1968 में वाजपेयी जनसंघ के राष्ट्रीय अध्‍यक्ष बने। उस समय पार्टी के साथ नानाजी देशमुख, बलराज मधोक तथा लालकृष्‍ण आडवाणी जैसे नेता थे। 1971 में 5वें लोकसभा चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी मध्यप्रदेश के ग्वालियर संसदीय सीट से चुनाव में उतरे और जीतकर संसद पहुंचे। आपातकाल के बाद हुए चुनाव में 1977 और फिर 1980 के मध्यावधि चुनाव में उन्होंने नई दिल्ली संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया।

1984 में अटलजी ने मध्यप्रदेश के ग्वालियर से लोकसभा चुनाव का पर्चा दाखिल कर दिया और उनके खिलाफ अचानक कांग्रेस ने माधवराव सिंधिया को खड़ा कर दिया जबकि माधवराव गुना संसदीय क्षेत्र से चुनकर आते थे। सिंधिया से वाजपेयी पौने 2 लाख वोटों से हार गए।

वाजपेयीजी ने एक बार जिक्र भी किया था कि उन्होंने स्वयं संसद के गलियारे में माधवराव से पूछा था कि वे ग्वालियर से तो चुनाव नहीं लड़ेंगे? माधवराव ने उस समय मना कर दिया था, लेकिन कांग्रेस की रणनीति के तहत अचानक उनका पर्चा दाखिल करा दिया गया। इस तरह वाजपेयी के पास मौका ही नहीं बचा कि वे दूसरी जगह से नामांकन दाखिल कर पाते। ऐसे में उन्हें सिंधिया से हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद वाजपेयी 1991 के आम चुनाव में लखनऊ और मध्यप्रदेश की विदिशा सीट से चुनाव लड़े और दोनों ही जगहों से जीते। बाद में उन्होंने विदिशा सीट छोड़ दी।1996 में हवाला कांड में अपना नाम आने के कारण लालकृष्ण आडवाणी गांधीनगर से चुनाव नहीं लड़े। इस स्थिति में अटल बिहारी वाजपेयी ने लखनऊ सीट के साथ-साथ गांधीनगर से चुनाव लड़ा और दोनों ही जगहों से जीत हासिल की। इसके बाद वाजपेयी ने लखनऊ अपनी कर्मभूमि बना ली। वे 1998 और 1999 का लोकसभा चुनाव लखनऊ सीट से जीतकर सांसद बने।

आपातकाल के बाद 1977 में हुए लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी की जीत हुई थी और वे मोरारजी भाई देसाई के नेतृत्‍व वाली सरकार में विदेश मामलों के मंत्री बने। विदेश मंत्री बनने के बाद वाजपेयी पहले ऐसे नेता थे जिन्‍होंने संयुक्‍त राष्‍ट्र महासंघ को हिन्‍दी भाषा में संबोधित किया। इसके बाद जनता पार्टी अंतरकलह के कारण बिखर गई और 1980 में वाजपेयी के साथ पुराने दोस्‍त भी जनता पार्टी छोड़ भारतीय जनता पार्टी से जुड़ गए।

वाजपेयी भाजपा के पहले राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष बने और वे कांग्रेस सरकार के सबसे बड़े आलोचकों में शुमार किए जाने लगे। 1994 में कर्नाटक तथा 1995 में गुजरात और महाराष्‍ट्र में पार्टी जब चुनाव जीत गई, तो उसके बाद पार्टी के तत्कालीन अध्‍यक्ष लालकृष्‍ण आडवाणी ने वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद का उम्‍मीदवार घोषित कर दिया था।

वाजपेयीजी 1996 से लेकर 2004 तक 3 बार प्रधानमंत्री बने। 1996 के लोकसभा चुनाव में भाजपा देश की सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी और वाजपेयी पहली बार प्रधानमंत्री बने, हालांकि उनकी सरकार 13 दिनों में संसद में पूर्ण बहुमत हासिल नहीं करने के चलते गिर गई।

1998 के दोबारा लोकसभा चुनाव में पार्टी को ज्‍यादा सीटें मिलीं और कुछ अन्‍य पार्टियों के सहयोग से वाजपेयीजी ने एनडीए का गठन किया और वे फिर प्रधानमंत्री बने। यह सरकार 13 महीनों तक चली, लेकिन बीच में ही जयललिता की पार्टी ने सरकार का साथ छोड़ दिया जिसके चलते सरकार गिर गई। 1999 में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा फिर से सत्‍ता में आई और वे इस पद पर 2004 तक बने रहे। इस बार वाजपेयीजी ने अपना कार्यकाल पूरा किया।

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी लंबे समय से बीमार रहने के कारण अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान यानी एम्स में भर्ती रहे, जहां उनका लंबा इलाज चला और 16 अगस्त 2018 को 93 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया।

हिन्दी निबंध: युवाओं के आदर्श स्वामी विवेकानंद

वर्तमान में भारत के युवा जि‍स महापुरुष के विचारों को आदर्श मानकर उससे प्रेरित होते हैं, युवाओं के वे मार्गदर्शक और भारतीय गौरव हैं स्वामी विवेकानंद।भारत की गरिमा को वैश्विक स्तर पर सम्मान के साथ बरकरार रखने के लिए के कई उदाहरण इतिहास में मिलते हैं। 
 
स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी सन्‌ 1863 को हुआ। उनका घर का नाम नरेंद्र दत्त था। उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे। वे अपने पुत्र नरेंद्र को भी अंगरेजी पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता के ढंग पर ही चलाना चाहते थे। नरेंद्र की बुद्धि बचपन से बड़ी तीव्र थी और परमात्मा को पाने की लालसा भी प्रबल थी। इस हेतु वे पहले ब्रह्म समाज में गए किंतु वहां उनके चित्त को संतोष नहीं हुआ।
 
सन्‌ 1884 में श्री विश्वनाथ दत्त की मृत्यु हो गई। घर का भार नरेंद्र पर पड़ा। घर की दशा बहुत खराब थी। कुशल यही थी कि नरेंद्र का विवाह नहीं हुआ था। अत्यंत गरीबी में भी नरेंद्र बड़े अतिथि-सेवी थे। स्वयं भूखे रहकर अतिथि को भोजन कराते, स्वयं बाहर वर्षा में रातभर भीगते-ठिठुरते पड़े रहते और अतिथि को अपने बिस्तर पर सुला देते।
 
रामकृष्ण परमहंस की प्रशंसा सुनकर नरेंद्र उनके पास पहले तो तर्क करने के विचार से ही गए थे किंतु परमहंसजी ने देखते ही पहचान लिया कि ये तो वही शिष्य है जिसका उन्हें कई दिनों से इंतजार है। परमहंसजी की कृपा से इनको आत्म-साक्षात्कार हुआ फलस्वरूप नरेंद्र परमहंसजी के शिष्यों में प्रमुख हो गए। संन्यास लेने के बाद इनका नाम विवेकानंद हुआ।
 
स्वामी विवेकानन्द अपना जीवन अपने गुरुदेव स्वामी रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर चुके थे। गुरुदेव के शरीर-त्याग के दिनों में अपने घर और कुटुम्ब की नाजुक हालत की परवाह किए बिना, स्वयं के भोजन की परवाह किए बिना गुरु सेवा में सतत हाजिर रहे। गुरुदेव का शरीर अत्यंत रुग्ण हो गया था। कैंसर के कारण गले में से थूक, रक्त, कफ आदि निकलता था। इन सबकी सफाई वे खूब ध्यान से करते थे।एक बार किसी ने गुरुदेव की सेवा में घृणा और लापरवाही दिखाई तथा घृणा से नाक भौंहें सिकोड़ीं। यह देखकर विवेकानन्द को गुस्सा आ गया। उस गुरुभाई को पाठ पढ़ाते हुए और गुरुदेव की प्रत्येक वस्तु के प्रति प्रेम दर्शाते हुए उनके बिस्तर के पास रक्त, कफ आदि से भरी थूकदानी उठाकर पूरी पी गए।
 
गुरु के प्रति ऐसी अनन्य भक्ति और निष्ठा के प्रताप से ही वे अपने गुरु के शरीर और उनके दिव्यतम आदर्शों की उत्तम सेवा कर सके। गुरुदेव को वे समझ सके, स्वयं के अस्तित्व को गुरुदेव के स्वरूप में विलीन कर सके। समग्र विश्व में भारत के अमूल्य आध्यात्मिक खजाने की महक फैला सके। उनके इस महान व्यक्तित्व की नींव में थी ऐसी गुरुभक्ति, गुरुसेवा और गुरु के प्रति अनन्य निष्ठा।
 
25 वर्ष की अवस्था में नरेंद्र दत्त ने गेरुआ वस्त्र पहन लिए। तत्पश्चात उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की।
 
सन्‌ 1893 में शिकागो (अमेरिका) में विश्व धर्म परिषद् हो रही थी। स्वामी विवेकानंदजी उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप से पहुंचे। योरप-अमेरिका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि से देखते थे। वहां लोगों ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानंद को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय ही न मिले। एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिला किंतु उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित हो गए।
 
फिर तो अमेरिका में उनका बहुत स्वागत हुआ। वहां इनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय हो गया। तीन वर्ष तक वे अमेरिका रहे और वहाँ के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान करते रहे।
 
‘अध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा’ यह स्वामी विवेकानंदजी का दृढ़ विश्वास था। अमेरिका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएं स्थापित कीं। अनेक अमेरिकन विद्वानों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया।
 
4 जुलाई सन्‌ 1902 को उन्होंने देह त्याग किया। वे सदा अपने को गरीबों का सेवक कहते थे। भारत के गौरव को देश-देशांतरों में उज्ज्वल करने का उन्होंने सदा प्रयत्न किया।

मकर संक्रांति पर हिन्दी में निबंध, पढ़ें रोचक जानकारी

प्रस्तावना : मकर संक्रांति हिन्दू धर्म के प्रमुख त्योहारों में शामिल है। यह त्योहार, सूर्य के उत्तरायन होने पर मनाया जाता है। इस पर्व की विशेष बात यह है कि यह अन्य त्योहारों की तरह अलग-अलग तारीखों पर नहीं, बल्कि हर साल 14 जनवरी को ही मनाया जाता है, जब सूर्य उत्तरायन होकर मकर रेखा से गुजरता है।कब मनाया जाता है यह त्योहार : मकर संक्रांति का संबंध सीधा पृथ्वी के भूगोल और सूर्य की स्थिति से है। जब भी सूर्य मकर रेखा पर आता है, वह दिन 14 जनवरी ही होता है, अत: इस दिन मकर संक्रांति का त्योहार मनाया जाता है।



कभी-कभी यह एक दिन पहले या बाद में यानी 13 या 15 जनवरी को भी मनाया जाता है लेकिन ऐसा कम ही होता है।

कैसे मनाया जाता है मकर संक्रांति का त्योहार : इस दिन सुबह जल्दी उठकर तिल का उबटन कर स्नान किया जाता है। इसके अलावा तिल और गुड़ के लड्डू एवं अन्य व्यंजन भी बनाए जाते हैं। इस समय सुहागन महिलाएं सुहाग की सामग्री का आदान प्रदान भी करती हैं। ऐसा माना जाता है कि इससे उनके पति की आयु लंबी होती है।
भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में मकर संक्रांति के पर्व को अलग-अलग तरह से मनाया जाता है। आंध्रप्रदेश, केरल और कर्नाटक में इसे संक्रांति कहा जाता है और तमिलनाडु में इसे पर्व के रूप में मनाया जाता है। पंजाब और हरियाणा में इस समय नई फसल का स्वागत किया जाता है और लोहड़ी पर्व मनाया जाता है, वहीं असम में बिहू के रूप में इस पर्व को उल्लास के साथ मनाया जाता है।

मकर संक्रांति की खासियत : हर प्रांत में इसका नाम और मनाने का तरीका अलग-अलग होता है। अलग-अलग मान्यताओं के अनुसार इस पर्व के पकवान भी अलग-अलग होते हैं, लेकिन दाल और चावल की खिचड़ी इस पर्व की प्रमुख पहचान बन चुकी है। विशेष रूप से गुड़ और घी के साथ खिचड़ी खाने का महत्व है। इसके अलावा तिल और गुड़ का भी मकर संक्राति पर बेहद महत्व है।धर्म-ज्योतिष की नजर से मकर संक्रांति : ज्योतिष की दृष्ट‍ि से देखें तो इस दिन सूर्य धनु राशि को छोड़कर मकर राशि में प्रवेश करता है और सूर्य के उत्तरायण की गति प्रारंभ होती है। सूर्य के उत्तरायण प्रवेश के साथ स्वागत-पर्व के रूप में मकर संक्रांति का पर्व मनाया जाता है। वर्षभर में बारह राशियों मेष, वृषभ, मकर, कुंभ, धनु इत्यादि में सूर्य के बारह संक्रमण होते हैं और जब सूर्य धनु राशि को छोड़कर मकर राशि में प्रवेश करता है, तब मकर संक्रांति होती है।

दान का महत्व : सूर्य के उत्तरायण होने के बाद से देवों की ब्रह्म मुहूर्त उपासना का पुण्यकाल प्रारंभ हो जाता है। इस काल को ही परा-अपरा विद्या की प्राप्ति का काल कहा जाता है। इसे साधना का सिद्धिकाल भी कहा गया है। इस काल में देव प्रतिष्ठा, गृह निर्माण, यज्ञ कर्म आदि पुनीत कर्म किए जाते हैं। मकर संक्रांति को स्नान और दान का पर्व भी कहा जाता है। इस दिन तीर्थों एवं पवित्र नदियों में स्नान का बेहद महत्व है साथ ही तिल, गुड़, खिचड़ी, फल एवं राशि अनुसार दान करने पर पुण्य की प्राप्ति होती है। ऐसा भी माना जाता है कि इस दिन किए गए दान से सूर्य देवता प्रसन्न होते हैं।

महाभारत के अनुसार : महाभारत में भीष्म पितामह ने सूर्य के उत्तरायण होने पर ही माघ शुक्ल अष्टमी के दिन स्वेच्छा से शरीर का परित्याग किया था। उनका श्राद्ध संस्कार भी सूर्य की उत्तरायण गति में हुआ था। फलतः आज तक पितरों की प्रसन्नता के लिए तिल अर्घ्य एवं जल तर्पण की प्रथा मकर संक्रांति के अवसर पर प्रचलित है।

उपसंहार : इन सभी मान्यताओं के अलावा मकर संक्रांति पर्व एक उत्साह और भी जुड़ा है। इस दिन पतंग उड़ाने का भी विशेष महत्व होता है। इस दिन कई स्थानों पर पतंगबाजी के बड़े-बड़े आयोजन भी किए जाते हैं। लोग बेहद आनंद और उल्लास के साथ पतंगबाजी करते हैं।

नेताजी सुभाषचंद्र बोस पर हिन्दी में निबंध

विश्व इतिहास में 23 जनवरी 1897 का दिन स्वर्णाक्षरों में अंकित है। इस दिन स्वतंत्रता आंदोलन के महानायक का जन्म हुआ था। सुभाषचंद्र बोस का जन्म कटक के प्रसिद्ध वकील जानकीनाथ तथा प्रभावती देवी के यहां हुआ था।उनके पिता ने अंगरेजों के दमन चक्र के विरोध में ‘रायबहादुर’ की उपाधि लौटा दी। इससे सुभाष के मन में अंगरेजों के प्रति कटुता ने घर कर लिया। अब सुभाष अंगरेजों को भारत से खदेड़ने व भारत को स्वतंत्र कराने का आत्मसंकल्प ले, चल पड़े राष्ट्रकर्म की राह पर।


आईसीएस की परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद सुभाष ने आईसीएस से इस्तीफा दिया। इस बात पर उनके पिता ने उनका मनोबल बढ़ाते हुए कहा- ‘जब तुमने देशसेवा का व्रत ले ही लिया है, तो कभी इस पथ से विचलित मत होना।’दिसंबर 1927 में कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव के बाद 1938 में उन्हें कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया। उन्होंने कहा था – मेरी यह कामना है कि महात्मा गांधी के नेतृत्व में ही हमें स्वाधीनता की लड़ाई लड़ना है। हमारी लड़ाई केवल ब्रिटिश साम्राज्यवाद से नहीं, विश्व साम्राज्यवाद से है। धीरे-धीरे कांग्रेस से सुभाष का मोह भंग होने लगा।16 मार्च 1939 को सुभाष ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। सुभाष ने आजादी के आंदोलन को एक नई राह देते हुए युवाओं को संगठित करने का प्रयास पूरी निष्ठा से शुरू कर दिया। इसकी शुरुआत 4 जुलाई 1943 को सिंगापुर में ‘भारतीय स्वाधीनता सम्मेलन’ के साथ हुई।

5 जुलाई 1943 को ‘आजाद हिन्द फौज’ का विधिवत गठन हुआ। 21 अक्टूबर 1943 को एशिया के विभिन्न देशों में रहने वाले भारतीयों का सम्मेलन कर उसमें अस्थायी स्वतंत्र भारत सरकार की स्थापना कर नेताजी ने आजादी प्राप्त करने के संकल्प को साकार किया।12 सितंबर 1944 को रंगून के जुबली हॉल में शहीद यतीन्द्र दास के स्मृति दिवस पर नेताजी ने अत्यंत मार्मिक भाषण देते हुए कहा- ‘अब हमारी आजादी निश्चित है, परंतु आजादी बलिदान मांगती है। आप मुझे खून दो, मैं आपको आजादी दूंगा।’ यही देश के नौजवानों में प्राण फूंकने वाला वाक्य था, जो भारत ही नहीं विश्व के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है।

16 अगस्त 1945 को टोक्यो के लिए निकलने पर ताइहोकु हवाई अड्डे पर नेताजी का विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया और स्वतंत्र भारत की अमरता का जयघोष करने वाला, भारत मां का दुलारा सदा के लिए, राष्ट्रप्रेम की दिव्य ज्योति जलाकर अमर हो गया।

26 जनवरी हिन्दी निबंध : ‘गणतंत्र दिवस’ भारत का राष्ट्रीय पर्व

प्रत्येक वर्ष 26 जनवरी को मनाया जाने वाला गणतंत्र दिवस, भारत का राष्ट्रीय पर्व है, जिसे प्रत्येक भारतवासी पूरे उत्साह, जोश और सम्मान के साथ मनाता है। राष्ट्रीय पर्व होने के नाते इसे हर धर्म, संप्रदाय और जाति के लोग मनाते हैं।26 जनवरी सन 1950 को हमारे देश को पूर्ण स्वायत्त गणराज्य घोषित किया गया था और इसी दिन हमारा संविधान लागू हुआ था। यही कारण है कि प्रत्येक वर्ष 26 जनवरी को भारत का गणतंत्र दिवस मनाया जाता है और चूंकि यह दिन किसी विशेष धर्म, जाति या संप्रदाय से न जुड़कर राष्ट्रीयता से जुड़ा है, इसलिए देश का हर बाशिंदा इसे राष्ट्रीय पर्व के तौर पर मनाता है।


खास तौर से सरकारी संस्थानों एवं शिक्षण संस्थानों में इस दिन ध्वजारोहण, झंडा वंदन करने के पश्चात राष्ट्रगान जन-गन-मन का गायन होता है और देशभक्ति से जुड़े विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम एवं प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है।

देशाक्ति गीत, भाषण, चित्रकला एवं अन्य प्रतियोगिताओं के साथ ही देश के वीर सपूतों को याद भी किया जाता है और वंदे मातरम, जय हिन्दी, भारत माता की जय के उद्घोष के साथ पूरा वातावरण देशभक्ति से ओतप्रोत हो जाता है।

भारत की राजधानी दिल्ली में गणंतंत्र दिवस पर विशेष आयोजन होते हैं। देश के प्रधानमंत्री द्वारा इंडिया गेट पर शहीद ज्योति का अभिनंदन करने के साथ ही उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित किए जाते हैं।इस दिन विशेष रूप से दिल्ली के विजय चौक से लाल किले तक होने वाली परेड आकर्षण का प्रमुख केंद्र होती है, जिसमें देश और विदेश के गणमान्य जनों को आमंत्रित किया जाता है। इस परेड में तीनों सेना के प्रमुख राष्ट्रीपति को सलामी दी जाती है एवं सेना द्वारा प्रयोग किए जाने वाले हथियार, प्रक्षेपास्त्र एवं शक्तिशाली टैंकों का प्रदर्शन किया जाता है एवं परेड के माध्यम से सैनिकों की शक्ति और पराक्रम को बताया जाता है।

गांव से लेकर शहरों तक, राष्ट्रभक्ति के गीतों की गूंज सुनाई देती है और प्रत्येक भारतवासी एक बार फिर अथाह देशभक्ति से भर उठता है। बच्चों में इस दिन को लेकर बेहद उत्साह होता है। इस दिन आयोजित कार्यक्रमों में बेहतरीन प्रदर्शन करने वाले प्रतिभाशाली विद्यार्थ‍ियों का सम्मान एवं पुरस्कार वितरण भी किया जाता है और मिठाई वितरण भी विशेष रूप से होता है।

राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा

प्रस्तावना : प्रत्येक स्वतंत्र राष्ट्र का अपना एक ध्वज होता है, जो उस देश के स्वतंत्र देश होने का संकेत है। का तिरंगा है, जो तीन रंगों – केसरिया, सफेद और हरे रंग से बना है और इसके केंद्र में नीले रंग से बना अशोक चक्र है। भारतीय राष्ट्रीय ध्वज की अभिकल्पना ने की थी और इसे इसके वर्तमान स्वरूप में 22 जुलाई 1947 को आयोजित भारतीय सभा की बैठक के दौरान अपनाया गया था।यह 1947 को अंग्रेजों से भारत की स्वतंत्रता के कुछ ही दिन पूर्व की गई थी। इसे 15 अगस्त 1947 और 26 जनवरी 1950 के बीच भारत के राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाया गया और इसके पश्चात भारतीय गणतंत्र ने इसे अपनाया। भारत में ‘तिरंगे’ का अर्थ भारतीय राष्ट्रीय ध्वज है।भारतीय राष्ट्रीय ध्वज में तीन रंग की क्षैतिज पट्टियां हैं, सबसे ऊपर केसरिया, बीच में सफेद ओर नीचे गहरे हरे रंग की पट्टी और ये तीनों समानुपात में हैं। ध्वज की चौड़ाई का अनुपात इसकी लंबाई के साथ 2 और 3 का है। सफेद पट्टी के मध्य में गहरे नीले रंग का एक चक्र है। यह चक्र अशोक की राजधानी के सारनाथ के शेर के स्तंभ पर बना हुआ है। इसका व्यास लगभग सफेद पट्टी की चौड़ाई के बराबर होता है और इसमें 24 तीलियां है।


तिरंगे का विकास : यह जानना अत्यंत रोचक है कि हमारा राष्ट्रीय ध्वज अपने आरंभ से किन-किन परिवर्तनों से गुजरा। इसे हमारे स्वतंत्रता के राष्ट्रीय संग्राम के दौरान खोजा गया या मान्यता दी गई। भारतीय राष्ट्रीय ध्वज का विकास आज के इस रूप में पहुंचने के लिए अनेक दौरों से गुजरा। हमारे राष्ट्रीय ध्वज के विकास में कुछ ऐतिहासिक पड़ाव इस प्रकार हैं :-

प्रथम राष्ट्रीय ध्वज 7 अगस्त 1906 को पारसी बागान चौक (ग्रीन पार्क) कलकत्ता में फहराया गया था जिसे अब कोलकाता कहते हैं। इस ध्वज को लाल, पीले और हरे रंग की क्षैतिज पट्टियों से बनाया गया था।द्वितीय ध्वज को पेरिस में मैडम कामा और 1907 में उनके साथ निर्वासित किए गए कुछ क्रांतिकारियों द्वारा फहराया गया था (कुछ के अनुसार 1905 में)। यह भी पहले ध्वज के समान था सिवाय इसके कि इसमें सबसे ऊपरी की पट्टी पर केवल एक कमल था किंतु सात तारे सप्तऋषि को दर्शाते हैं। यह ध्वज बर्लिन में हुए समाजवादी सम्मेलन में भी प्रदर्शित किया गया था।

तृतीय ध्वज 1917 में आया जब हमारे राजनैतिक संघर्ष ने एक निश्चित मोड़ लिया। डॉ. एनी बेसेंट और लोकमान्य तिलक ने घरेलू शासन आंदोलन के दौरान इसे फहराया। इस ध्वज में 5 लाल और 4 हरी क्षैतिज पट्टियां एक के बाद एक और सप्तऋषि के अभिविन्यास में इस पर बने सात सितारे थे। बांयी और ऊपरी किनारे पर (खंभे की ओर) यूनियन जैक था। एक कोने में सफेद अर्धचंद्र और सितारा भी था।

अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सत्र के दौरान जो 1921 में बेजवाड़ा (अब विजयवाड़ा) में किया गया यहां आंध्र प्रदेश के एक युवक ने एक झंडा बनाया और गांधी जी को दिया। यह दो रंगों का बना था। लाल और हरा रंग जो दो प्रमुख समुदायों अर्थात हिन्दू और मुस्लिम का प्रतिनिधित्व करता है।
गांधी जी ने सुझाव दिया कि भारत के शेष समुदाय का प्रतिनिधित्वि करने के लिए इसमें एक सफेद पट्टी और राष्ट्र की प्रगति का संकेत देने के लिए एक चलता हुआ चरखा होना चाहिए।
वर्ष 1931 ध्वज के इतिहास में एक यादगार वर्ष है। तिरंगे ध्वज को हमारे राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया गया। यह ध्वज जो वर्तमान स्वरूप का पूर्वज है, केसरिया, सफेद और मध्य में गांधी जी के चलते हुए चरखे के साथ था।

22 जुलाई 1947 को संविधान सभा ने इसे मुक्त भारतीय राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाया। स्वतंत्रता मिलने के बाद इसके रंग और उनका महत्व बना रहा। केवल ध्वज में चलते हुए चरखे के स्थान पर सम्राट अशोक के धर्म चक्र को दिखाया गया। इस प्रकार कांग्रेस पार्टी का तिरंगा ध्वज अंतत: स्वतंत्र भारत का तिरंगा ध्वज बना।

राष्ट्रीय ध्वज के रंग : भारत के राष्ट्रीय ध्वज की ऊपरी पट्टी में केसरिया रंग है जो देश की शक्ति और साहस को दर्शाता है। बीच में स्थित सफेद पट्टी धर्म चक्र के साथ शांति और सत्य का प्रतीक है। निचली हरी पट्टी उर्वरता, वृद्धि और भूमि की पवित्रता को दर्शाती है।

अशोक चक्र : इस धर्म चक्र को विधि का चक्र कहते हैं जो तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व मौर्य सम्राट अशोक द्वारा बनाए गए सारनाथ मंदिर से लिया गया है। इस चक्र को प्रदर्शित करने का आशय यह है कि जीवन गति‍शील है और रुकने का अर्थ मृत्यु है।

उपसंहार : भारतीय राष्ट्रीय ध्वज भारत के नागरिकों की आशाएं और आकांक्षाएं दर्शाता है। यह हमारे राष्ट्रीय गर्व का प्रतीक है। पिछले पांच दशकों से अधिक समय से सशस्त्र सेना बलों के सदस्यों सहित अनेक नागरिकों ने तिरंगे की शान को बनाए रखने के लिए निरंतर अपने जीवन न्यौछावर किए हैं।

महात्मा गांधी पर हिन्दी में निबंध

महात्मा गांधी का को गुजरात के पोरबंदर नामक स्थान पर हुआ था। इनका पूरा नाम मोहनदास करमचंद गांधी था। इनके पिता का नाम करमचंद गांधी था। मोहनदास की माता का नाम पुतलीबाई था जो करमचंद गांधी जी की चौथी पत्नी थीं। मोहनदास अपने पिता की चौथी पत्नी की अंतिम संतान थे। महात्मा गांधी को ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का नेता और ‘राष्ट्रपिता’ माना जाता है।

गांधी जी का परिवार- गांधी की मां पुतलीबाई अत्यधिक धार्मिक थीं। उनकी दिनचर्या घर और मंदिर में बंटी हुई थी। वह नियमित रूप से उपवास रखती थीं और परिवार में किसी के बीमार पड़ने पर उसकी सेवा सुश्रुषा में दिन-रात एक कर देती थीं। मोहनदास का लालन-पालन वैष्णव मत में रमे परिवार में हुआ और उन पर कठिन नीतियों वाले जैन धर्म का गहरा प्रभाव पड़ा। जिसके मुख्य सिद्धांत, अहिंसा एवं विश्व की सभी वस्तुओं को शाश्वत मानना है। इस प्रकार, उन्होंने स्वाभाविक रूप से अहिंसा, शाकाहार, आत्मशुद्धि के लिए उपवास और विभिन्न पंथों को मानने वालों के बीच परस्पर सहिष्णुता को अपनाया।
विद्यार्थी के रूप में गांधी जी – मोहनदास एक औसत विद्यार्थी थे, हालांकि उन्होंने यदा-कदा पुरस्कार और छात्रवृत्तियां भी जीतीं। वह पढ़ाई व खेल, दोनों में ही तेज नहीं थे। बीमार पिता की सेवा करना, घरेलू कामों में मां का हाथ बंटाना और समय मिलने पर दूर तक अकेले सैर पर निकलना, उन्हें पसंद था। उन्हीं के शब्दों में – ‘बड़ों की आज्ञा का पालन करना सीखा, उनमें मीनमेख निकालना नहीं।’

उनकी किशोरावस्था उनकी आयु-वर्ग के अधिकांश बच्चों से अधिक हलचल भरी नहीं थी। हर ऐसी नादानी के बाद वह स्वयं वादा करते ‘फिर कभी ऐसा नहीं करूंगा’ और अपने वादे पर अटल रहते। उन्होंने सच्चाई और बलिदान के प्रतीक प्रह्लाद और हरिश्चंद्र जैसे पौराणिक हिन्दू नायकों को सजीव आदर्श के रूप में अपनाया। गांधी जी जब केवल तेरह वर्ष के थे और स्कूल में पढ़ते थे उसी वक्त पोरबंदर के एक व्यापारी की पुत्री कस्तूरबा से उनका विवाह कर दिया गया।युवा गांधी जी – 1887 में मोहनदास ने जैसे-तैसे ‘मुंबई यूनिवर्सिटी’ की मैट्रिक की परीक्षा पास की और भावनगर स्थित ‘सामलदास कॉलेज’ में दाखिल लिया। अचानक गुजराती से अंग्रेजी भाषा में जाने से उन्हें व्याख्यानों को समझने में कुछ दिक्कत होने लगी। इस बीच उनके परिवार में उनके भविष्य को लेकर चर्चा चल रही थी। अगर निर्णय उन पर छोड़ा जाता, तो वह डॉक्टर बनना चाहते थे। लेकिन वैष्णव परिवार में चीर-फाड़ की इजाजत नहीं थी। साथ ही यह भी स्पष्ट था कि यदि उन्हें गुजरात के किसी राजघराने में उच्च पद प्राप्त करने की पारिवारिक परंपरा निभानी है तो उन्हें बैरिस्टर बनना पड़ेगा और ऐसे में गांधीजी को इंग्लैंड जाना पड़ा।

यूं भी गांधी जी का मन उनके ‘सामलदास कॉलेज’ में कुछ खास नहीं लग रहा था, इसलिए उन्होंने इस प्रस्ताव को सहज ही स्वीकार कर लिया। उनके युवा मन में इंग्लैंड की छवि ‘दार्शनिकों और कवियों की भूमि, संपूर्ण सभ्यता के केन्द्र’ के रूप में थी। सितंबर 1888 में वह लंदन पहुंच गए। वहां पहुंचने के 10 दिन बाद वह लंदन के चार कानून महाविद्यालय में से एक ‘इनर टेंपल’ में दाखिल हो गए।

1906 में टांसवाल सरकार ने दक्षिण अफीका की भारतीय जनता के पंजीकरण के लिए विशेष रूप से अपमानजनक अध्यादेश जारी किया। भारतीयों ने सितंबर 1906 में जोहेन्सबर्ग में गांधी के नेतृत्व में एक विरोध जनसभा का आयोजन किया और इस अध्यादेश के उल्लंघन तथा इसके परिणामस्वरूप दंड भुगतने की शपथ ली। इस प्रकार सत्याग्रह का जन्म हुआ, जो वेदना पहुंचाने के बजाए उन्हें झेलने, विद्वेषहीन प्रतिरोध करने और बिना हिंसा किए उससे लड़ने की नई तकनीक थी।

इसके बाद दक्षिण अफीका में सात वर्ष से अधिक समय तक संघर्ष चला। इसमें उतार-चढ़ाव आते रहे, लेकिन गांधी के नेतृत्व में भारतीय अल्पसंख्यकों के छोटे से समुदाय ने अपने शक्तिशाली प्रतिपक्षियों के खिलाफ संघर्ष जारी रखा। सैकड़ों भारतीयों ने अपने स्वाभिमान को चोट पहुंचाने वाले इस कानून के सामने झुकने के बजाय अपनी आजीविका तथा स्वतंत्रता की बलि चढ़ाना ज्यादा पसंद किया।

गांधी जब भारत लौट आए- सन् 1914 में गांधी जी भारत लौट आए। देशवासियों ने उनका भव्य स्वागत किया और उन्हें महात्मा पुकारना शुरू कर दिया। उन्होंने अगले चार वर्ष भारतीय स्थिति का अध्ययन करने तथा उन लोगों को तैयार करने में बिताए जो सत्याग्रह के द्वारा भारत में प्रचलित सामाजिक व राजनीतिक बुराइयों को हटाने में उनका साथ दे सकें।फरवरी 1919 में अंग्रेजों के बनाए रॉलेट एक्ट कानून पर, जिसके तहत किसी भी व्यक्ति को बिना मुकदमा चलाए जेल भेजने का प्रावधान था, उन्होंने अंग्रेजों का विरोध किया। फिर गांधी जी ने सत्याग्रह आंदोलन की घोषणा कर दी। इसके परिणामस्वरूप एक ऐसा राजनीतिक भूचाल आया, जिसने 1919 के बसंत में समूचे उपमहाद्वीप को झकझोर दिया।

इस सफलता से प्रेरणा लेकर महात्‍मा गांधी ने भारतीय स्‍वतंत्रता के लिए किए जाने वाले अन्‍य अभियानों में सत्‍याग्रह और अहिंसा के विरोध जारी रखे, जैसे कि ‘असहयोग आंदोलन’, ‘नागरिक अवज्ञा आंदोलन’, ‘दांडी यात्रा’ तथा ‘भारत छोड़ो आंदोलन’। गांधी जी के इन सारे प्रयासों से भारत को 15 अगस्‍त 1947 को स्‍वतंत्रता मिल गई।

उपसंहार – मोहनदास करमचंद गांधी भारत एवं भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक प्रमुख राजनीतिक एवं आध्यात्मिक नेता थे। राजनीतिक और सामाजिक प्रगति की प्राप्ति हेतु अपने अहिंसक विरोध के सिद्धांत के लिए उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई।

महात्मा गांधी के पूर्व भी शांति और अहिंसा की के बारे में लोग जानते थे, परंतु उन्होंने जिस प्रकार सत्याग्रह, शांति व अहिंसा के रास्तों पर चलते हुए अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया, उसका कोई दूसरा उदाहरण विश्व इतिहास में देखने को नहीं मिलता। तभी तो संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी वर्ष 2007 से गांधी जयंती को ‘विश्व अहिंसा दिवस’ के रूप में मनाए जाने की घोषणा की है।

गांधी जी के बारे में प्रख्यात वैज्ञानिक आइंस्टीन ने कहा था कि- ‘हजार साल बाद आने वाली नस्लें इस बात पर मुश्किल से विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना ऐसा कोई इंसान भी धरती पर कभी आया था।

वेलेंटाइन डे यानी प्रेम दिवस पर हिन्दी में निबंध

प्रत्येक वर्ष 14 फरवरी के दिन वेलेंटाइन डे मनाया जाता है। वेलेंटाइन डे को प्रेम दिवस के रूप में भी जाना जाता है। यह दिन प्रेमी युगलों के लिए एक उत्सव की तरह होता है, जब खास तौर से अपने प्रिय को प्रेम अभिव्यक्त किया जाता है।वेलेंटइन डे इतिहास : वेलेंटइन डे की शुरुआत अमेरिका में की याद में हुई थी। सर्वप्रथन यह दिन अमेरिेका में ही मनाया गया, फिर इंग्लैंड में इसे मनाने की शुरुआत हुई। इसके बाद यह पूरे विश्व में धीरे-धीरे मनाया जाने लगा।कुछ देशों में इसे अलग-अलग नामों के साथ भी मनाया जाता है। चीन में इसे ‘नाइट्स ऑफ सेवेन्स’ वहीं जापान व कोरिया में ‘वाइट डे’ के नाम से जाना जाता है और पूरा फरवरी माह प्रेम का महीना माना जाता है। भारत में वेलेंटाइन डे मनाने की शुरुआत सन 1992 के लगभग हुई थी, जिसके बाद इसका चलन यहां भी शुरू हो गया।


सेंट वेलेंटाइन कौन थे : वेलेंटाइन-डे मूल रूप से सेंट वेलेंटाइन की याद में मनाया जाता है। हालांकि सेंट वेलेंटाइन के बारे में ऐतिहासिक तौर पर अलग-अलग मत देखने को मिलते हैं। 1969 में कैथोलिक चर्च ने कुल ग्यारह सेंट वेलेंटाइन के होने की पुष्टि की और 14 फरवरी को उनके सम्मान में पर्व मनाने की घोषणा की। इनमें सबसे महत्वपूर्ण वेलेंटाइन रोम के सेंट वेलेंटाइन माने जाते हैं।

वहीं 1260 में संकलित की गई ‘ऑरिया ऑफ जैकोबस डी वॉराजिन’ नामक पुस्तक में भी सेंट वेलेंटाइन का जिक्र किया गया है जिसके इसके अनुसार रोम में तीसरी शताब्दी में सम्राट क्लॉडियस का शासन था। उसके अनुसार विवाह करने से पुरुषों की शक्ति और बुद्धि कम होती। इसी के चलते उसने आदेश जारी किया कि उसका कोई भी सैनिक या अधिकारी विवाह नहीं करेगा। लेकिन संत वेलेंटाइन ने इस आदेश का न केवल वि‍रोध किया बल्कि शादी भी की।

यह विरोध एक आंधी की तरह फैला और सम्राट क्लॉडियस के अन्य सैनिकों और अधिकारियों ने भी विवाह किए। इस बात से गुस्साए क्लॉडियस ने 14 फरवरी सन् 269 को संत वेलेंटाइन को फांसी पर चढ़वा दिया।

रंग-रंगीले त्योहार ‘होली’ पर हिन्दी में निबंध

भारत का रंग-रंगीला होली, प्यारभरे रंगों से सजा यह पर्व हर धर्म, संप्रदाय व जाति के बंधन खोलकर भाईचारे का संदेश देता है। इस दिन सारे लोग अपने पुराने गिले-शिकवे भूलकर गले लगते हैं और एक-दूजे को गुलाल लगाते हैं।होली एक ऐसा रंग-बिरंगा त्योहार है जिसे हर धर्म के लोग पूरे उत्साह और मस्ती के साथ मनाते हैं। बच्चे और युवा रंगों से खेलते हैं। फाल्गुन मास की पूर्णिमा को यह त्योहार मनाया जाता है। होली के साथ अनेक कथाएं जुड़ी हैं। होली मनाने के एक रात पहले होली को जलाया जाता है।


इसके पीछे एक लोकप्रिय पौराणिक कथा है। भक्त प्रह्लाद के पिता हरिण्यकश्यप स्वयं को भगवान मानते थे। वे विष्णु के विरोधी थे जबकि प्रह्लाद विष्णु भक्त थे। उन्होंने प्रह्लाद को विष्णु भक्ति करने से रोका। जब वे नहीं माने तो उन्होंने प्रह्लाद को मारने का प्रयास किया। प्रह्लाद के पिता ने अपनी बहन होलिका से मदद मांगी।
होलिका को आग में न जलने का वरदान प्राप्त था। होलिका अपने भाई की सहायता करने के लिए तैयार हो गई। होलिका प्रह्लाद को लेकर चिता में जा बैठी परंतु भगवान विष्णु की कृपा से प्रह्लाद सुरक्षित रहे और होलिका जलकर भस्म हो गई।

यह कथा इस बात का संकेत करती है कि बुराई पर अच्छाई की जीत अवश्य होती है। आज भी पूर्णिमा को होली जलाते हैं और अगले दिन सब लोग एक-दूसरे पर गुलाल, अबीर और तरह-तरह के रंग डालते हैं। यह त्योहार रंगों का त्योहार है।इस दिन लोग प्रात:काल उठकर रंगों को लेकर अपने नाते-रिश्तेदारों व मित्रों के घर जाते हैं और उनके साथ जमकर होली खेलते हैं। बच्चों के लिए तो यह त्योहार विशेष महत्व रखता है। वे एक दिन पहले से ही बाजार से अपने लिए तरह-तरह की पिचकारियां व गुब्बारे लाते हैं। बच्चे गुब्बारों व पिचकारी से अपने मित्रों के साथ होली का आनंद उठाते हैं।

होली के दिन सभी लोग बैर-भाव भूलकर एक-दूसरे से परस्पर गले मिलते हैं। घरों में औरतें एक दिन पहले से ही मिठाई, गुझिया आदि बनाती हैं व अपने पास-पड़ोस में आपस में बांटती हैं। कई लोग होली की टोली बनाकर निकलते हैं और उन्हें हुर्रियारे कहा जाता है। ब्रज की होली, मथुरा की होली, वृंदावन की होली, बरसाने की होली, काशी की होली पूरे भारत में मशहूर है।
आजकल अच्छी क्वालिटी के रंगों का प्रयोग नहीं होता और त्वचा को नुकसान पहुंचाने वाले रंग खेले जाते हैं। यह सरासर गलत है। इस मनभावन त्योहार पर रासायनिक लेप व नशे आदि से दूर रहना चाहिए। बच्चों को भी सावधानी रखनी चाहिए। बच्चों को बड़ों की निगरानी में ही होली खेलना चाहिए। दूर से गुब्बारे फेंकने से आंखों में घाव भी हो सकता है। रंगों को भी आंखों और अन्य अंदरुनी अंगों में जाने से रोकना चाहिए।

यह मस्तीभरा पर्व मिल-जुलकर मनाना चाहिए तभी हम सभी इस त्योहार का असली आनंद उठा पाएंगे। इस पर्व के संबंध में ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी दुश्मनी, कटुता को भूला कर एक-दूसरे के गले मिलते हैं और मिठाइयों के साथ उत्साहपूर्वक इस त्योहार को मनाते हैं। होली से रंगपंचमी तक इस त्योहार का आनंद और उत्साह सभी जगह देखने को मिलता है।

छत्रपति शिवाजी महाराज पर हिन्दी में निबंध

परिचय : एक बहादुर, बुद्धिमानी, शौर्यवीर और दयालु शासक थे। उनका जन्म 19 फरवरी 1627 को मराठा परिवार में महाराष्ट्र के शिवनेरी में हुआ। शिवाजी के पिता शाहजी और माता जीजाबाई थीं। माता जीजाबाई धार्मिक स्वभाव वाली होते हुए भी गुण-स्वभाव और व्यवहार में वीरंगना नारी थीं।इसी कारण उन्होंने बालक शिवा का पालन-पोषण रामायण, महाभारत तथा अन्य भारतीय वीरात्माओं की उज्ज्वल कहानियां सुना और शिक्षा देकर किया था। बचपन में शिवाजी अपनी आयु के बालक इकट्ठे कर उनके नेता बनकर युद्ध करने और किले जीतने का खेल खेला करते थे।

दादा कोणदेव के संरक्षण में उन्हें सभी तरह की सामयिक युद्ध आदि विधाओं में भी निपुण बनाया था। धर्म, संस्कृति और राजनीति की भी उचित शिक्षा दिलवाई थी। उस युग में परम संत रामदेव के संपर्क में आने से शिवाजी पूर्णतया राष्ट्रप्रेमी, कर्त्तव्यपरायण एवं कर्मठ योद्धा बन गए।

परिवार एवं गुरु : छत्रपति शिवाजी महाराज का विवाह सन् 14 मई 1640 में सइबाई निंबालकर के साथ हुआ था। उनके पुत्र का नाम संभाजी था। संभाजी शिवाजी के ज्येष्ठ पुत्र और उत्तराधिकारी थे जिसने 1680 से 1689 ई. तक राज्य किया। संभाजी में अपने पिता की कर्मठता और दृढ़ संकल्प का अभाव था। संभाजी की पत्नी का नाम येसुबाई था। उनके पुत्र और उत्तराधिकारी राजाराम थे। शिवाजी के समर्थ गुरु रामदास का नाम भारत के साधु-संतों व विद्वत समाज में सुविख्यात है।

शिवाजी का पराक्रम : युवावस्था में आते ही उनका खेल वास्तविक कर्म शत्रु बनकर शत्रुओं पर आक्रमण कर उनके किले आदि भी जीतने लगे। जैसे ही शिवाजी ने पुरंदर और तोरण जैसे किलों पर अपना अधिकार जमाया, वैसे ही उनके नाम और कर्म की सारे दक्षिण में धूम मच गई, यह खबर आग की तरह आगरा और दिल्ली तक जा पहुंची। अत्याचारी किस्म के यवन और उनके सहायक सभी शासक उनका नाम सुनकर ही मारे डर के बगलें झांकने लगे।

शिवाजी के बढ़ते प्रताप से आतंकित बीजापुर के शासक आदिलशाह जब शिवाजी को बंदी न बना सके तो उन्होंने शिवाजी के पिता शाहजी को गिरफ्तार किया। पता चलने पर शिवाजी आग बबूला हो गए। उन्होंने नीति और साहस का सहारा लेकर छापामारी कर जल्द ही अपने पिता को इस कैद से आजाद कराया। तब बीजापुर के शासक ने शिवाजी को जीवित अथवा मुर्दा पकड़ लाने का आदेश देकर अपने मक्कार सेनापति अफजल खां को भेजा। उसने भाईचारे व सुलह का झूठा नाटक रचकर शिवाजी को अपनी बांहों के घेरे में लेकर मारना चाहा, पर समझदार शिवाजी के हाथ में छिपे बघनख का शिकार होकर वह स्वयं मारा गया। इससे उसकी सेनाएं अपने सेनापति को मरा पाकर वहां से दुम दबाकर भाग गईं।छत्रपति शिवाजी महाराज एक भारतीय शासक थे जिन्होंने मराठा साम्राज्य खड़ा किया था इसीलिए उन्हें एक अग्रगण्य वीर एवं अमर स्वतंत्रता-सेनानी स्वीकार किया जाता है। वीर शिवाजी राष्ट्रीयता के जीवंत प्रतीक एवं परिचायक थे। इसी कारण निकट अतीत के राष्ट्रपुरुषों में महाराणा प्रताप के साथ-साथ इनकी भी गणना की जाती है।

बहुमुखी प्रतिभा के धनी छत्रपति शिवाजी महाराज की जयंती महाराष्ट्र में वैसे तो 19 फरवरी को मनाई जाती है लेकिन कई संगठन शिवाजी का जन्मदिवस‍ हिन्दू कैलेंडर में आने वाली तिथि के अनुसार मनाते हैं। उनकी इस वीरता के कारण ही उन्हें एक आदर्श एवं महान राष्ट्रपुरुष के रूप में स्वीकारा जाता है। छत्रपति शिवाजी महाराज का 3 अप्रैल 1680 ई. में तीन सप्ताह की बीमारी के बाद रायगढ़ में स्वर्गवास हो गया।

उपसंहार : यूं तो शिवाजी पर मुस्लिम विरोधी होने का दोषारोपण किया जाता है, पर यह सत्य इसलिए नहीं कि क्योंकि उनकी सेना में तो अनेक मुस्लिम नायक एवं सेनानी थे तथा अनेक मुस्लिम सरदार और सूबेदारों जैसे लोग भी थे। वास्तव में शिवाजी का सारा संघर्ष उस कट्टरता और उद्दंडता के विरुद्ध था, जिसे औरंगजेब जैसे शासकों और उसकी छत्रछाया में पलने वाले लोगों ने अपना रखा था।

आरोह अध्याय तीसरा गद्य भाग

प्रश्न – पथेर पांचाली फिल्म की शूटिंग का काम ढाई साल तक क्यों चला ?
उत्तर –
पथेर पांचाली फिल्म की शूटिंग का काम ढाई साल तक इसलिए चला इसके कई कारण थे |
1. इस फिल्म के फिल्मकार  सत्यजीत राय के पास पर्याप्त पैसे नहीं थे | पैसे खत्म होने के
बाद फिर से पैसे जमा होने तक  शूटिंग स्थगित रखनी पड़ती थी |
2. फिल्मकार स्वयं एक विज्ञापन कंपनी में नौकरी करते थे और उसे नौकरी के काम से जब
फुर्सत मिलती थी तब शूटिंग होती थी |
3. बीचों-बीच पात्रों स्थानों दृश्य आदि की भी समस्याएं आ जाती थी |
4. बारिश धूप अंधेरा प्रकाश उसकी भी समस्या आ जाती थी |
5. आसपास  भीड़ वाले लोगों के कारण उत्पन्न समस्याएं | जैसे सुबोध दा, धोबी की समस्या,
कुत्ते का मर जाना और एक पात्र मिठाई वाला मर जाता है | उसकी जगह पर वैसा ही मिलते
जुलते आदमी की तलाश करने के कारण भी शूटिंग कुछ समय के लिए स्थगित करनी पड़ी |
6. स्थान से संबंधित समस्याएं जैसे काश के फूल का नष्ट हो जाना कमरे में सांप निकल
आना फिर से फूलों के लिए पूरा साल इंतजार करना |

प्रश्न – किन दो  दृश्यों में दर्शक यह पहचान नहीं पाते कि उनकी शूटिंग में कोई तरकीब
अपनाई गई है ?
उत्तर –
प्रथम दृश्य इस दृश्य में भूलो नामक कुत्ते को  अप्पू की मां द्वारा गमले में भात खाते हुए
चित्रित करना था | परंतु पैसे खत्म होने के कारण यह दृश्य चित्रित ना हो सका 6 महीने
के बाद लेखक पुनः उस स्थान पर गया तब तक कुत्ते की मौत हो चुकी थी | काफी प्रयास
के बाद उसे मिलता जुलता कुत्ता मिला और उसे भात खाते हुए उस दृश्य को पूरा किया गया |
यह दृश्य इतना स्वभाविक था कि कोई भी दर्शक उसे पहचान नहीं पाया कि कुत्ता बदला हुआ
है |
दूसरा दृश्य  इस दृश्य में श्रीनिवास नामक व्यक्ति मिठाई वाले की भूमिका निभा रहा था |
बीच में शूटिंग रोकनी पड़ी दोबारा उस स्थान पर जाने से पता चला कि उस व्यक्ति का देहांत
हो चुका है  | लेखक ने मिलते-जुलते व्यक्ति को लेकर बाकी दृश्य फिल्म आया | पहला
श्रीनिवास आसमान से बाहर आता है और दूसरा श्रीनिवास कमरे की ओर पीठ करके मुखर्जी
के घर के गेट के अंदर जाता है |  इस प्रकार इस दृश्य में भी दर्शक अलग-अलग कलाकार
को पहचान नहीं पाए |

फिल्मकार ने बताया कि पथेर पांचाली फिल्म का निर्माण करते समय अनेक समस्याओं का
सामना करना पड़ा | उदाहरणस्वरूप तीसरा दृश्य फिल्म की शूटिंग में रेलगाड़ी पर अनेक 
दृश्य दर्शाए गए किंतु जहां शूटिंग हो रही थी | गांव में रेलगाड़ी इतनी देर तक नहीं रूकती थी
सभी दृश्य नहीं फिल्माए जाते | नई तरकीब अपनाई गई वहां से निकलने वाली अलग-अलग
तीन रेलगाड़ियों पर दृश्य फिल्माए गए और फिर उन्हें आपस में जोड़ दिया गया | इस प्रकार
तीन रेलगाड़ियों का दृश्य फिल्म आने पर भी दर्शक रेलगाड़ी को नहीं पहचान पाए |


प्रश्न – भूलो की जगह दूसरा कुत्ता क्यों लाया गया उसने फिल्म के किस दृश्य को पूरा
किया ?
उत्तर –
भूलो कुत्ते की मृत्यु हो जाने के कारण दूसरा कुत्ता लाया गया | फिल्म में दृश्य इस प्रकार था
कि अप्पू की मां सर्व जया पप्पू को भात खिला रही थी और वह अपने तीर कमान से खेलने के
लिए उतावला है | पप्पू   भात खाते-खाते कमान से तीर छोड़ता है और उसे लाने के लिए भाग
जाता है | उसकी मां सर्व जया उसे भात खिलाने के लिए उसके पीछे दौड़ती है | भूलो कुत्ता
वहीं खड़ा सब कुछ देख रहा है | उसका सारा ध्यान भात की थाली की ओर है और यह सारा
दृश्य भूलो कुत्ते पर ही दर्शाया गया है |  इसके बाद दृश्य में अप्पू की मां बचा हुआ भात गमले
में डाल देती है और यह बात भूलो कुत्ता का जाता है | यह दृश्य दूसरे कुत्ते से पूरा किया गया
क्योंकि भूलो कुत्ता मर चुका था |

प्रश्न – बारिश का दृश्य चित्रित करने में क्या मुश्किल है और उसका समाधान किस
प्रकार हुआ ?
उत्तर –
फिल्मकार के पास पैसे का भाव था | अतः बारिश के दिनों में शूटिंग नहीं कर सके | जब
उनके पास पैसा आया तो अक्टूबर का महीना शुरु हो चुका था | बरसात के दिन समाप्त
हो चुके थे | शरद ऋतु में बारिश होना भाग्य पर निर्भर था | लेखक हर रोज अपनी टीम
लेकर गांव में जाकर बैठ जाते थे | बादलों की ओर टकटकी लगाकर देखते रहते थे कि
आज बारिश आएगी लेकिन बारिश नहीं आती | परंतु अचानक बदल छा  जाते थे और
धुआंधार बारिश होने लगती थी इस तरह जो बारिश का दृश्य फिल्माया गया | इतना
अवश्य हुआ कि बेमौसमी बरसात में भीगने के कारण अप्पू और दुर्गा दोनों बच्चों को
ठंड लग गई |

प्रश्न – किसी फिल्म की शूटिंग करते समय फिल्मकार को जिन समस्याओं का सामना
करना पड़ता है उन्हें सूचीबद्ध कीजिए ?
उत्तर –
1. फिल्म बनाने के लिए बहुत सारे धन की आवश्यकता पड़ती है कई बार फिल्म पर
अनुमान से भी अधिक खर्च हो जाता है |
2. कलाकारों के कलाकारों का चयन करते समय बहुत सी बातो का ध्यान रखना
पड़ता है |
3. कई बार फिल्मकार को फिल्म की कहानी के अनुसार पात्र ही नहीं मिल पाते |
4. फिल्म में काम करने वाले कलाकारों में से किसी एक की अचानक मृत्यु भी
फिल्म की शूटिंग के लिए समस्या बन जाती है |
5. स्थानीय लोगों का हस्तक्षेप व सहयोग भी कई बार फिल्मकार को अपनी फिल्म
की शूटिंग किसी पिछड़े गांव में जाकर करनी होती है | जहां उन्हें गांव वालों का सहयोग
प्राप्त नहीं हो पाता कई समस्याएं खड़ी हो
जाती है |
6. प्राकृतिक दृश्यों के लिए भी मौसम पर निर्भर होना पड़ता है |

आरोह अध्याय 4 गद्य भाग

प्रश्न – लार्ड कर्जन को इस्तीफा क्यों देना पड़ गया?
उत्तर –
लॉर्ड कर्जन भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के वायसराय बन कर आया | उसमें भारत में अंग्रेजी
साम्राज्य की जड़े मजबूत करने और उनका वर्चस्व स्थापित करने का हर संभव प्रयास किया |
भारत के लोगों पर भी उसने अनेक दमनकारी नीतियां बनाकर अधिकार जमा लिया था | लार्ड
कर्जन के इस्तीफे के दो कारण थे |
1. बंग भंग की योजना को मनमाने ढंग से लागू करने के कारण सारे भारतवासी उसके विरुद्ध
उठ खड़े हुए | इस से कर्जन की जड़े हिल गई | वह इंग्लैंड वापस जाने के बहाने ढूंढने लगा |
2. कर्जन ने फौजी अफसर को अपनी इच्छा से  नियुक्त करना चाहा | दबाव बनाने के लिए
उसने इस्तीफा देने की बात कही  उसने सोचा नहीं था कि उनके रुतबे को देखते हुए अंग्रेजी
सरकार उनकी बात मान लेगी | लेकिन ऐसा नहीं हुआ इसके विपरीत अंग्रेजी सरकार ने उनका
इस्तीफा ही मंजूर कर दिया और इंग्लैंड वापिस जाना पड़ा |
प्रश्न – शिव शंभू की दो गायों के माध्यम से लेखक क्या कहना चाहता है?
उत्तर –
शिव शंभू की दो गायों  के माध्यम से लेखक यह कहना चाहता है कि भारत के पशु हो या
मनुष्य अपने संगी-साथियों के साथ गहरा लगाव रखते हैं | चाहे वह आपस में लड़ते झगड़ते
भी हो तो भी उनका परस्पर प्रेम अटूट होता है | एक दूसरे से विदा होते समय वह दुख का
अनुभव करते हैं | लेखक यह बताना चाहता कि भारत देश में भावनाएं प्रदान है | इसी प्रकार
लॉर्ड कर्जन ने भारत में रहते हुए भारत वासियों को बहुत दुख पहुंचाया है | भारत वासियों को
पतन की ओर धकेला है | फिर भी भारतवासियों को उसकी विदाई पर गहरा दुख अनुभव हो रहा है |

प्रश्न – नादिरशाह से भी बढ़कर जिद्दी है लॉर्ड कर्जन के संदर्भ में क्या आपको यह बात सही
लगती है पक्ष और विपक्ष में तर्क दीजिए ?
उत्तर –  
जी हां, कर्जन के संदर्भ में ही हमें यह बात सही लगती है | क्योंकि नादिरशाह एक बड़ा ही क्रूर
राजा था | उसने दिल्ली में कत्लेआम करवाया था | परंतु आसिफजहा ने तलवार गले में डाल
कर उसके आगे समर्पण कर के कत्लेआम रोकने की प्रार्थना की तो तुरंत नादिरशाह ने कत्लेआम
रोक दिया गया | परंतु जब लॉर्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन किया 8 करोड़ भारत वासियों
की ओर से विनती बार-बार हो रही थी | परंतु उसने अपनी जिद नहीं छोड़ी इस संदर्भ में कर्जन
की जिद्द नादिरशाह से भी बड़ी है लॉर्ड कर्जन नादिरशाह से भीअधिक क्रूर था | उसने जनहित
की अपेक्षा की है |

प्रश्न – 8 करोड़ प्रजा के गिड़गिड़ाकर विच्छेद ना करने की प्रार्थना पर आपने जरा भी ध्यान
नहीं दिया यह किस ऐतिहासिक घटना की ओर संकेत किया गया है?
उत्तर –
लेखक बाबू बालमुकुंद जी यहां बंगाल के विभाजन की ऐतिहासिक घटना की ओर संकेत करते
हैं | लार्ड कर्जन दो बार भारत का वायसराय बनकर आया |उसने भारत पर अंग्रेजी का प्रभुत्व
स्थाई करने के लिए अनेक काम किए | भारत में राष्ट्रवादी भावनाओं को कुचलने के लिए
उन्होंने बंगाल का विभाजन की योजना बनाई | देश की जनता कर्जन की ओर इस चाल को
समझ गई | उन्होंने इस योजना का विरोध भी किया | परंतु भारतीय लोग पूरी तरह असहाय
और लाचार थे | भारत के लोग बंगाल का विभाजन नहीं चाहते थे | किंतु उसने अपनी मनमानी
करते हुए बंगाल को दो टुकड़ों में बांट दिया | पूर्वी बंगाल और पश्चिमी बंगाल लेकिन भारत
से जाते-जाते उन्होंने बंगाल का विभाजन कर दिया | यद्यपि उनका भारत में वायसराय बनने का
कार्यकाल भी समाप्त हो चुका था |

प्रश्न –  क्या  शान आप की देश में थी अब क्या हो गई कितने ऊंचे   होकर आप कितने
नीचे गिरे पाठ के आधार पर आशय स्पष्ट कीजिए  ?
उत्तर –
लॉर्ड कर्जन को संबोधित करते हुए लेखक कहते हैं कि कुछ समय पहले तक भारत और
ब्रिटिश साम्राज्य में आपकी जड़े बहुत मजबूत थी | लेकिन अब आप ने अपना मान सम्मान
खो दिया | भारत में आपका बड़ा रुतबा था | दिल्ली दरबार में उनका वैभव चरम सीमा पर था |
पति-पत्नी की कुर्सी सोने की थी | उनका हाथी सबसे ऊंचा और सबसे आगे रहता था | सम्राट
के भाई का स्थान भी उनसे कम था | उनके  इशारे पर प्रशासक ,राजा, धनीआदमी नाचते थे |
उनके संकेत पर बड़े-बड़े राजाओं को मिट्टी में मिला दिया गया और बहुत से निकम्मों को बड़े
पदों पर रखा गया | परंतु बाद में यह स्थिति थी कि एक फौजी अफसर को भी आपके कहने
के अनुसार ब्रिटिश सरकार ने नहीं रखा | इससे भारत और ब्रिटिश साम्राज्य दोनों जगह पर
आप का अपमान हुआ | आप बहुत ऊंचे उठकर भी बहुत नीचे गिर गए |

व्याकरण जनसंचार की विधाएं

जनसंचार को समझने के लिए संचार के स्वरूप को समझना बहुत जरूरी है |

प्रश्न –  संचार क्या है?

उत्तर –
मनुष्य सामाजिक प्राणी है सामाजिक प्राणी होने के कारण वह संचार करता है | संचार का मतलब
विचरण करना | दैनिक जीवन में संचार के बिना हम जीवित नहीं रह सकते | क्योंकि मनुष्य जब
तक जीवित है | संचार अर्थात विचरण करता रहेगा | हम यह भी कह सकते हैं कि समाचार जीवन
की निशानी है | हम जिस संचार की बात कर रहे हैं | उसका अर्थ है मानव के संदेशों को पहुंचाना
अर्थात संदेश भेजना प्राप्त करना इसके दो अनिवार्य लक्षण है |
1. दो या दो से अधिक व्यक्ति
2. उनके बीच किसी संदेश का ग्रहण होना या संप्रेषण होना |
संचार जो है अनुभवों की साझेदारी है | संचार की परिभाषा इस प्रकार हम कह सकते हैं | सूचनाओं
विचारों और भावनाओं को लिखित, मौखिक या दृश्य- श्रव्य माध्यमों के जरिए सफलतापूर्वक एक
जगह से दूसरी जगह पहुंचाना ही संचार है |

प्रश्न – संचार के साधन कौन-कौन से हैं ?
उत्तर –
वह साधन हमारे संदेश को पहुंचाते हैं  जैसे समाचार पत्र, फिल्म, टेलीफोन रेडियो, दूरदर्शन,
इंटरनेट, सिनेमा और फक्स आदि |


प्रश्न – संचार की प्रक्रिया के तत्व कौन कौन से हैं ?
उत्तर –
संचार की प्रक्रिया के निम्नलिखित तत्व है |
– संचारक या स्त्रोत
– संदेश का कुटीकरण
– संदेश का  कूटवाचन
– प्राप्तकर्ता

प्रश्न – संचार के विभिन्न प्रकारों पर प्रकाश डालिए ?
उत्तर –
संचार के निम्न प्रकार है |
– सांकेतिक संचार
– मौखिक संचार
– समूह संचार
– अंत: र्वैयक्तिक  संचार
– जनसंचार

प्रश्न – फीडबैक से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर –
कुट्टी कृत संदेश के पहुंचने पर प्राप्तकर्ता अपनी प्रतिक्रिया करता है |
इससे पता चलता कि संचारक का संदेश प्राप्त करता तक पहुंच गया |

प्रश्न – एनकोडिंग या कुटीकरण का क्या तात्पर्य है ?
उत्तर –
संदेश को भेजने के लिए शब्दों संकेतों या ध्वनि चित्रों का उपयोग किया जाता है | भाषा भी
एक प्रकार का कोट चिन्ह या कोड  होता है | अतः प्राप्तकर्ता को समझाने योग्य कुटों में
संदेश को बांधना एनकोडिंग या कुटीकरण कहलाता है |

प्रश्न – कूट वाचन या डिकोडिंग से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर –
कुटीकरण की उल्टी प्रक्रिया कूट वाचन कहलाती है | इसके माध्यम से संदेश को प्राप्त करता
कूट चिन्हों में बंधे संदेश समझाता है | इसके लिए आवश्यक है कि प्राप्तकर्ता भी कोड का
वही अर्थ समझता हूं | जो उसे संचारक समझाना चाहता है |

प्रश्न – सांकेतिक संचार से आप क्या समझते हैं?
उत्तर – सांकेतिक संचार का आर्थिक संकेतों द्वारा संदेश पहुंचाना | मनुष्य का हाथजोड़ना, पांव
छूना, हाथ मिलाना, मुट्ठी कसना, सिग्नल देना, लाल बत्ती होना, हरी बत्ती होना आदि सांकेतिक
संचार है |

प्रश्न – समूह संचार का क्या आशय है?
उत्तर –
एक से अधिक व्यक्तियों से बात करता है  | किसी समूह के सदस्य आपस में विचार विमर्श करते हैं
तो उसे समूह संचार कहते हैं | अध्यापक का कक्षा में पढ़ाना किसी संस्था की बैठक होना, जलसा
या जुलूस  मैं वार्तालाप कोई एक व्यक्ति बात करता है और वह सबके लिए करता है | वह सामूहिक
मुद्दों पर की गई वार्ता समूह संचार के अंतर्गत ही आती है |

प्रश्न – जनसंचार से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर –
जनसंचार नहीं सभ्यता का शब्द है जब संचार किसी तकनीकी या यांत्रिक माध्यम के जरिए समाज
के विशाल वर्ग से संवाद करने की कोशिश की जाती है तो उसे जनसंचार कहते हैं | इसमें एक संदेश
को यांत्रिक माध्यम के जरिए बहुगुणित किया जाता है | ताकि उसे अधिक से अधिक लोगों तक
पहुंचाया जा सके |

जनसंचार की प्रमुख विशेषताएं –
– जनसंचार माध्यमों के जरिए प्रकाशित या  प्रसारित संदेशों की प्रकृति सार्वजनिक होती है |
– इसमें संचालक और प्राप्तकर्ता के बीच प्रत्यक्ष संबंध नहीं होता |
– इस माध्यम में अनेक द्वार पाल होते हैं जो इन माध्यमों  से प्रकाशित /प्रसारित होने वाली सामग्री
को नियंत्रण तथा निर्धारित करते हैं |

प्रश्न – जनसंचार माध्यमों में द्वारपालों की भूमिका क्या है ?
उत्तर –
जनसंचार  माध्यमिक में द्वारपालों की भूमिका महत्वपूर्ण है | यह उनकी जिम्मेदारी है कि वह
सार्वजनिक हित, पत्रकारिता के सिद्धांतों, मूल्यों और आचार संहिता के अनुसार सामग्री को संपादित
करें तथा इसके बाद ही उनके प्रसारण या प्रकाशन को इजाजत दे |

प्रश्न – जनसंचार के कौन-कौन से कार्य हैं स्पष्ट करें?
उत्तर –
जनसंचार के निम्नलिखित कार्य हैं  |
1. सूचना देना – जनसंचार माध्यमों का प्रमुख कार्य सूचना देना है यह दुनिया भर से सूचनाएं
प्रसारित करते हैं |
2. मनोरंजन – जनसंचार माध्यम सिनेमा रेडियो-टीवी आदि मनोरंजन के भी प्रमुख साधन है |
3. जागरूकता – यह जनता को शिक्षित करते हैं जनसंचार माध्यम लोगों को जागरूक बनाते हैं |
4. निगरानी – जनसंचार माध्यम सरकार और संस्थाओं के कामकाज पर निगरानी भी रखते हैं |
5. विचार विमर्श के मंच – यह माध्यम लोकतंत्र में विभिन्न विचारों की अभिव्यक्ति का मंच
उपलब्ध कराते हैं इसके जरिए विभिन्न विचार लोगों के सामने पहुँचाते हैं |

प्रश्न – जनसंचार के माध्यमों को आम जीवन पर क्या प्रभाव है ?
उत्तर –
जनसंचार माध्यमों का आम जीवन पर बहुत प्रभाव है इनसे सेहत, अध्यात्मक, दैनिक जीवन
की जरूरतें हैं आदि पूरी होने लगी है | यह हमारी जीवनशैली को प्रभावित कर रहे हैं |

प्रश्न – लोकतंत्र में जनसंचार माध्यमों का प्रभाव बताइए ?
उत्तर –
लोकतंत्र में जनसंचार माध्यमों में जीवन को गतिशील व पारदर्शी बनाया है | इससे माध्यम में
विभिन्न मुद्दों पर विचार विमर्श व  बहस होती है | सूचनाओं में जानकारियों का आदान प्रदान
होता है | जो सरकार की कार्यशैली पर अंकुश रखती है | लोकतंत्र को सशक्त बनाती है |

प्रश्न – जनसंचार के दुष्प्रभाव बताइए?
उत्तर –
1. जनसंचार के माध्यम से समाज के कमजोर वर्गों को कम महत्व दिया जाता है |
2.  समाज में अश्लीलता व सामाजिक व्यवहार को बढ़ावा देते हैं |
3.  जनसंचार के माध्यम खास तौर पर TV वेब सिनेमा ने लोगों को काल्पनिक दुनिया की
सैर कराई है | यह आम जनजीवन से दूर हो जाते हैं | यह पलायनवादी प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हैं |
4. अनावश्यक मुद्दों को उछाला जाता है |
5. कई बार बहुत छोटी बात को बहुत बढ़ा चढ़ाकर बताया जाता है |


आरोह अध्याय तीसरा काव्य भाग


आज हम आरोह पुस्तिका का तीसरा अध्याय करेंगे – पथिक (कवि रामनरेश त्रिपाठी)


प्रश्न- पथिक का मन कहां विचरना चाहता है ?
उत्तर –  
पथिक प्रकृति के सौंदर्य से अभिभूत है | प्रतिक्षण नूतन  वेश धारण करने वाली बादलों की
पंक्ति को तथा नीले समंदर की लहरों को देखकर वह  मुग्ध हो रहा है | पथिक का मन
नीले अकाश और नीले समुद्र के बीच विचार ना चाहता है | उसका मन चाहता है कि वह
बादलों पर बैठकर आकाश के बीच विचरण करें और प्रकृति के समस्त सौंदर्य का अनुभव
करें |

प्रश्न- सूर्योदय वर्णन के लिए किस तरह के  बिंबो का प्रयोग हुआ है ?
उत्तर –  
सुबह के सूरज की लालिमा जब समुद्र तल पर पड़ती है | तो चारों तरफ लालिमा बिखरती
हैं | कवि ने कल्पना की है कि मानो लक्ष्मी का मंदिर है और लक्ष्मी के स्वागत के लिए बनाई
गई सुनहरी सड़क है | कवि को ऐसा प्रतीत होता है कि सूर्य उसमंदिर का उज्जवल कअंगूरा
है और लक्ष्मी की सवारी को इस पुण्य धरती पर उतारने के लिए स्वयं समुद्र देव ने बहुत
सुंदर स्वर्णिम मार्ग बना दिया हो | कवि की कल्पना  बहुत ही सुंदर तरीके से बिंबो के रूप
में उभरकर आई है |

प्रश्न- पथिक कविता में कई स्थानों पर प्रकृति को मनुष्य के रूप में देखा गया है ऐसे
उदाहरणों का भाव स्पष्ट करते हुए लिखें?
उत्तर –  
श्री राम नरेश त्रिपाठी आधुनिक युग के कवियों में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं | त्रिपाठी
जी बहुमुखी प्रतिभा के कलाकार थे | प्राकृतिक प्रेम और नवीनता के प्रति आग्रह भी उनके
काव्य की प्रमुख विशेषता रही है | पथिक कविता में भी प्रकृति  के उपादान ओं को मानव
की भांति करते हुए दिखाया है | जिससे कविता के सौंदर्य अभिवृद्धि हुई है | सूर्य के सामने
बादलों का नाचना कभी श्वेत श्याम नील वर्ण को धारण करना गहरे अंधेरे का मानवीकरण
किया है आधी रात को सारे संसार को जो ढक लेता है | अकाश रूपी छत पर तारों को
बिखरा देता है तब इस जगत का स्वामी मंद गति से चलकर आता है | सागर ओं को अपने
मीठे गीत सुनाता है | आधी रात को जब सूर्य निकलने की तैयारी करता है और धीमी धीमी
गति से चलता हुआ सागर के किनारे अपनी लालिमा भी बिखेरता है | और चांद उसके रूप
को देखकर हंस कर वापसी की तैयारी करता है | पेड़ पत्ते फूल मुस्कुराने लगते हैं पक्षी
चहचाहने लगते हैं | वृक्षों को भी सजे धजे प्रसन्न मनुष्य के रूप में दर्शाया है | फूलों को
सुख की सास लेते हुए  प्राणी की भांति दिखाया गया है | इस तरह इस कविता में कई
स्थानों पर प्रकृति को मनुष्य के रूप में दर्शाया गया है |


व्याकरण फीचर लेखन

फीचर लेखन के गुण:
1 – विश्वसनीयता
2 – सरसता एवं सहजता
3 – रोचकता एवं संक्षिप्त ता
4 – प्रसंगिकता


5 – प्रचलित शब्दावली का प्रयोग

फीचर लेखन का क्रम:
1 शीर्षक
2 भूमिका  
3 विषय का विस्तार  
4 निष्कर्ष या समापन

फीचर  लेखन कोनी मलिक श्रेणियों में बांटा जा सकता है –
– सामाजिक सांस्कृतिक
– साहित्यिक  फीचर
– प्राकृतिक फीचर
– घटनापरक फीचर
– राजनीतिक फीचर

कुछ महत्वपूर्ण फीचर के उदाहरण –

1. स्वच्छता अभियान पर एक फीचर लिखिए | 
                     
स्वच्छता अभियान
भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी द्वारा महात्मा गांधी की 150वीं जयंती के अवसर पर
आरंभ किया गया स्वच्छ भारत अभियान अब तक सबसे बड़ा स्वच्छता अभियान है |
गांधी जी के आवाहन को पूरा करने वाले देश अब उनके लिए क्लीन इंडिया के आह्वान
को पूरा करने निकल पड़ा | देश को स्वच्छ बनाना सिर्फ किसी सरकार या संगठन की
जिम्मेदारी नहीं हो सकती हो नहीं संभव भी नहीं है | जब तक देश के नागरिक इसके
प्रति जागरूक नहीं होंगे तब तक इस महान लक्ष्य को प्राप्त करना संभव नहीं है |
स्वच्छता की भावना हमारे अंदर होनी चाहिए बल्कि हमें स्वयं ही इसके प्रति आंतरिक
स्तर पर सचेत होना होगा | ना तो गंदगी फैलाएं और ना ही किसी को गंदगी फैलाने
दे यही भावना स्वस्थ अभियान को सफल एवं सार्थक बना सकती है | हमें स्वच्छता
के महत्व को समझना चाहिए इसके अभाव में यानी गंदगी से होने वाले दुष्प्रभावों को
भी जाना होगा विश्व पटल पर अपनी गंदगी की छवि को मिटाकर अपनी स्वच्छता
प्रिया छवि को स्थापित करना होगा और इस स्वच्छता अभियान को सफल बनाना होगा |

2. वन रहेंगे- हम रहेंगे पर एक फीचर लिखिए |

वन रहेंगे : हम रहेंगे
पिछले सैकड़ों वर्षों से वृक्ष कट रहे हैं जंगलों का सफाया हो रहा है | मनुष्य ने ठान
लिया कि हम ही रहेंगे चाहे जंगल रहे या ना रहे यदि जंगल रहे तो हम कहां रहेंगे |
जंगल सिकुड़ कर छोटे होते जा रहे हैं | नगर फल-फूल कर बड़े होते जा रहे हैं | मनुष्य
और प्रकृति में गहरा संबंध रहा है | मानव अपनी सभी अवस्थाओं की पूर्ति के लिए
पूर्णता प्रकृति पर ही निर्भर है | वन संपदा भी प्रकृति की एक अद्भुत और अत्यंत उपयोगी
है | वन तथा पेड़ पौधे पर्यावरण से कार्बन डाइऑक्साइड  लेकर उसे प्राण दायिनी
ऑक्सीजन में बदल देते हैं | वृक्षों का प्रत्येक अंग – फल, फूल, पत्तियां, छाल यहां तक
की जड़ भी उपयोगी है | हमें स्वादिष्ट फलों के साथ साथ जीवन रक्षक औषधियां भी
मिलती हैं | वन बादलों को रोककर वर्षा कराने में भी सहायता करते हैं | पर्यावरण को
भी शुद्ध करते हैं वनों से प्राप्त लकड़ियां भवन निर्माण और फर्नीचर बनाने का काम करती
हैं | वनों से हमें अनेक प्रकार के लाभ प्राप्त होते हैं | फिर भी मनुष्य ने अंधाधुंध वृक्षों की
कटाई की है | जिसके कारण अनेक समस्याएं उत्पन्न हो गए हैं | अचानक मौसम परिवर्तन
हो जाता है | जीव-जंतुओं की कई प्रजातियां लुप्त हो गई हैं | पृथ्वी के तापमान में वृद्धि
होने लग गई है | हिमनदो का पिघलना समुद्री जल- अति में वृद्धि अनेक समस्याओं को
उत्पन्न हो गई है मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विकास के लिए वन संपदा
का प्रयोग करता है | इसलिए हमें यह बात समझनी होगी कि विकास और पर्यावरण
एक दूसरे के विरोधी नहीं एक दूसरे के पूरक हैं | यदि वृक्ष न रहे तो संपूर्ण मानव जगत
का अस्तित्व ही मिट जाएगा | यह भी सही है कि विकास के लिए वृक्ष काटना आवश्यक
है | इसके लिए हमें वृक्षारोपण को अपना कर्तव्य समझ इसका पालन करना चाहिए इसके
साथ ही हमें सतत पोषणीय विकास की विचारधारा को अपनाना चाहिए |

आरोह अध्याय चौथा काव्य भाग

आज हम आरोह पुस्तिका काव्य भाग का चौथा अध्याय करेंगे – वे आंखें (सुमित्रानंदन पंत)

प्रश्न –कविता भी आंखें में किसान की पीड़ा के लिए किसे जिम्मेदार बताया गया है?
उत्तर –
किसान की पीड़ा के लिए जमीदार और महाजन तथा क्रूर कोतवाल को जिम्मेदार ठहराया
गया है | महाजन ने अपना ब्याज और ऋण वसूलने के लिए उसके खेत, बैल और घरबार
बिकवा दिया | जमीदार के  कार् कूनो ने किसान के जवान बेटे को पीट-पीटकर मार दिया |
किसान इतना पैसों का मोहताज हो गया कीलाचार किसान अपनी पत्नी की दवा दारू ना
करा सका और वह भी चल बसी | और उसकी दूध मूही बच्ची का भी देहांत हो गया |
किसान की  पुत्रवधू पर भी कोतवाल ने कू दृष्टि डाली | वह भी कुएं में डूब कर मर गई |
समाज को अन् प्रदान करने वाले कृषक से सारा संसार किनारा कर तमाशा देखता रहा |
किसान अकेला ही पीड़ा को सहता रहा और भीतर ही भीतर घुटता रहा |

प्रश्न – पिछले सुख की स्मृति आंखों में क्षणभर एक चमक है लाती | इसमें किसान के
किन पिछले सुखों की ओर संकेत किया गया है?
उत्तर –
वे आंखें कविता में सुमित्रानंदन पंत जी ने किसान के पिछले सुखों की ओर संकेत किया
है | किसान के कवि लहराते हरे भरे खेत  थे | जिन की हरियाली को देखकर उसका तन मन
प्रसन्न हो जाता था | तब वह स्वाधीनता उसी से उसका मस्तक ऊंचा उठता था | घर में बैलों
की जोड़ी थी | दूध देने वाली गाय थी |जो किसान से इतना प्रेम करती थी कि वह किसान
को ही अपना  दूध दोहने देती थी | किसान का भरा पूरा परिवार था | एक जवान बेटा और
बहू थी | किसान की देखभाल करने वाली उसकी अपनी पत्नी थी | वह सुख और समृद्धि से
सुख पूर्वक अपने परिवार के साथ जीवन व्यतीत कर रहा था | परंतु सब कुछ शोषक वर्ग
की भेंट चढ़ गया था | यह उपरोक्त खुशियां, सुख की स्मृतियां किसान की आंखों में क्षण
भर के लिए चमक ला देती थ |

प्रश्न – किसान की  विरान आंखें नॉक सदृश बन जाती हैं क्यों ?
उत्तर –
किसान बहुत खुश और धन-धान्य से भरपूर अपने परिवार में बहुत खुश था | लेकिन आज
उसकी दुर्दशा जो है उसे अपनी विवशता और असहायता पर रोना आता है | वह महाजन
का कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता | यह सोच कर उसकी आंखें नम हो जाती है | कोतवाल
पर उसका जोर नहीं चलता |जमीदार के दुख वह सहता गया | यह सभी बातें उसकी आंखें
तीर के समान नुकीली हो जाती है औरऐसा लगता है मानो वह अत्याचारों की छाती को भेद
डालेगी |

प्रश्न – संदर्भ सहित आश्य स्पष्ट करें :
क – ऊजरी उसके सिवा किसे कब
       पास दुहाने आने देती?
ख – घर में विधवा रही पतोहू
       लक्ष्मी थी, यद्यपि पति घातिन
उत्तर –
क – आंखें कविता में किसान के पास एक श्वेत गाय थी | जिसका नाम ऊजरी था |
जिसे वह बहुत प्रेम करता था | महाजन ने ब्याज की कोड़ी कोड़ी वसूलने के लिए किसान
की बैलों की जोड़ी तथा गाय को नीलाम कर दिया | किसान को अपनी गाय की बहुत याद
आ रही थी कि दूध  दुहाने के लिए किसान  के अतिरिक्त किसी को पास नहीं आने देती थी |
आज सबकुछ उससे छीन गया |

ख- उपरोक्त  पंक्तियां  महाजन के कारकूनो  किसान के जवान पुत्र को मार डाला |
इसी कारण उसकी पुत्रवधू विधवा हो गई | उसकी इसी  स्थिति का चित्रण करते हुए कवि
कहता है की किसान का पुत्र नहीं रहा | उसके उसके पीछे उसकी विधवा पुत्रवधू रह गई जो
कहने का तो नाम से लक्ष्मी थी | परंतु वह पति को खाने वाली थी | कवि ने इन पंक्तियों में
समाज में विधवाओं के प्रति अपनाए जाने वाले दृष्टिकोण को व्यक्त किया है | कोई कसूर
ना होते हुए भी किसान की पुत्रवधू को पति घातिन होने का कलंक सहना पड़ रहा है |

आरोह अध्याय पांचवा काव्य भाग


आज हम आरोह पुस्तिका काव्य भाग का चौथा अध्याय करेंगे – घर की याद (भवानी प्रसाद मिश्र)


प्रश्न – पानी के रात भर गिरने और प्राण मन के गिरने से परस्पर क्या संबंध है ?
उत्तर –
राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े हुए कवि भवानी प्रसाद मिश्र को भारत छोड़ो आंदोलन के अंतर्गत
जेल यात्रा की यात्रा यातना सहनी पड़ी | यह कविता जब वह जेल में थे | तब उन्होंने लिखी
बहुत वर्षा हो रही है | रात भर वर्षा होने से कवि को अपने घर की याद आ गई घर के सदस्य
के साथ हंसी खेल करते हुए मनोरम दिन ज्यादा गए जिस प्रकार मेघा अकाश से गिरकर
वर्षा ला रहे हैं | उसी तरह कवि का मन यहां परिवार की स्मृतियों से गिरा हुआ है | जैसे जैसे
पानी रात भर लगातार गिरता जा रहा है वैसे-वैसे कवि के लिए में भी अपने परिजनों की
स्मृतियां चलचित्र बनकर निरंतर बढ़ती जा रही है |

प्रश्न – मायके आई बहन के लिए कवि ने घर को परिताप का घर क्यों कहा है ?
उत्तर –  
कवि सोच रहा है कि उसकी बहन मायके में अनंत खुशियां बांटने आई होगी | सोचा होगा
कि पिता के घर जाकर अपने भाइयों बहनों से मिलूंगी परंतु वहां जाकर उसे पता चला
होगा कि उसका एक भाई जेल में है | उसकी वही खुशियां दुख में बदल जाएंगी | वही
घर उसके लिए दुखों का घर बन गया होगा | इसी कारण बाप के घर को (परिताप का
घर) कहा है |

प्रश्न – पिता के व्यक्तित्व की किन विशेषताओं को उकेरा गया है?
उत्तर –
भवानी प्रसाद मिश्र के पिता की निम्नलिखित विशेषताओं को कार आ गया है –
i) बलिष्ठ शरीर और साहसी   कवि ने अपने पिता का विशालकाय और मजबूत
शरीर और साहसी व्यक्ति दर्शाया है | कभी कहते हैं कि उनके पिता पर बुढ़ापे का कोई
लक्षण दिखाई नहीं देता | वह अभी भी पूरी क्षमता के साथ दौड़ सकते हैं | खिल खिला
सकते हैं | साहस  तो उनमे इतना है कि वह अपने सामने शेर तो क्या मौत को देखकर
भी ना डरे | उनकी आवाज में बादलों जैसी गर्जन है | काम भी तूफान की तरह तेजी से
करते हैं |
ii) धार्मिक प्रवृत्ति – वह सुबह उठकर घर की छत पर जाकर व्यायाम करते हैं |
मुगलद भी जानते हैं | दंड बैठक निकालते हैं | और साथ में गीता का पाठ भी करते हैं |
यह उनकी एक धार्मिक प्रवृत्ति का उदाहरण है |
iii) कोमल हृदय – भवानी प्रसाद मिश्र के पिता मन से भी विशाल और उदार हैं | वह
अत्यंत सरल, भोले, सहृदय और  भावुक है | अपने परिवार जनों से वह गहरा लगाव
रखते हैं | उन के 5 पुत्र है वह सबसे गहरे जुड़े हुए हैं और कवि से उनका विशेष लगाव है |

प्रश्न – निम्नलिखित पंक्तियों में बस शब्द के प्रयोग की विशेषताएं बताइए?
मैं मजे में हूं सही है,
घर नहीं हूं बस यही है,
किंतु यह बस बड़ा बस है,
इसी बस से सब वीरस है |  
उत्तर –
यहां बस शब्द का प्रयोग विशिष्ट है बस शब्द तीन बार प्रयोग किया गया है |
परंतु तीनों बस का अर्थ अलग अलग है | एक बस का विविध प्रकार से अर्थ है | पहले
बस में कवि अपने पिता और परिवार जनों को सांत्वना दे रहा है | केवल मामूली सी बात
है कि मैं घर पर नहीं हूं बस यहां जेल में हूं | दूसरी बार बस शब्द में केवल कवि के मन
की व्याकुलता और पीड़ा का अनुभव होता है | वास्तविकता यही है कि वह घर से दूर है
कि उसकी सहनशक्ति कि मानो चरम सीमा हो गई है | अंतिम बस द्वारा कवि थोड़ा
आशावादी भी है कवि की विभिन्न स्थितियों और भावनाओं को प्रस्तुत किया है | वैसे तो
जेल में मैं मजे से हूं लेकिन घर के लोग लोगों की खुशियों से मैं वंचित हूं यहां बस
निराशावादी चित्रण दे रहा है |

प्रश्न – कविता की अंतिम 12 पंक्तियों को पढ़कर कल्पना कीजिए कि कभी अपनी
किस स्थिति मन: स्थिति को अपने परिजनों से छुपाना चाहता है?
उत्तर –
कवि जेल में है | उसे घर की याद सताती है | बहुत तेज बारिश हो रही है तो वह सावन
को संबोधित करते हुए अपने आप से ही बातें कर रहा है | घर को याद कर रहा है | घर के
लोगों के वियोग से पीड़ित है |  दूसरे सभी लोगों से उसे डर लग रहा है | कहता है कि मैं
आदमी से भी डरने लग गया हूं जेल की यातनाएं सह रहा हूं | शरीर और मन ढलने लगा है |
रात रात भर जागता रहता हूं और चुप रहने लगा हूं | जेल में रहकर अपना अस्तित्व ही भूल
गया हूं | अपनी वास्तविकता छिपाकर सावन के माध्यम से अपने घर में खुशियों के संदेश
भिजवाता हूं | यहां कवि की मन की स्थिति दीवानों जैसी हो गई हैअर्थात उसे घर की याद
आ रही है |  

आज हम आरोह पुस्तिका काव्य भाग का छटा अध्याय करेंगे – चंपा काले काले अक्षर नहीं चीनती

प्रश्न – कवि ने चंपा की किन विशेषताओं का उल्लेख किया है?
उत्तर –
कवि ने चंपा की निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख किया है –
– भोलापन |
– अनपढ़ |
– शरारती स्वभाव |
– मुखर स्वभाव –  मन की बात को बिना छिपाए सीधे मुंह पर कहना |
– आत्मीयता  – परिवार के साथ मिलकर रहने की भावना |
– विद्रोही कष्ट देने वाले के प्रति खुला विद्रोह |

प्रश्न – चंपा कौन है उसे किस बात पर आश्चर्य होता है ?
उत्तर –
चंपा सुंदर नामक ग्वाले की बेटी है | बिल्कुल अनपढ़ है | मैं पढ़े-लिखे लोगों को अच्छा नहीं
मानती और पढ़ाई को भी अच्छा नहीं मानती | जब लेखक को काले काले अक्षर पढ़ते देखती है |
तो इस बात पर आश्चर्य होता है इन अक्षरों में कैसे-कैसे स्वर भरे हुए हैं | जिससे कुछ ना कुछ
पढ़ कर बोला जाता है | वह इस बात पर आश्चर्य करती है |

प्रश्न – चंपा ने ऐसा क्यों कहा कि कोलकाता पर बजर गिरे ?
उत्तर –
कवि चंपा को पढ़ने के लिए कहता है कि जब तेरी शादी हो जाएगी | तुम ससुराल जाओगी |
तब कुछ दिनों तक तो तुम्हारे पति तुम्हारे साथ रहेगा | फिर कमाने के लिए कोलकाता चला
जाएगा | तुम जानते हो कोलकाता बहुत दूर है तो तुम पति को संदेश कैसे भेजोगी | उसे पत्थर
कैसे लिखोगे इसलिए कभी उसे पढ़ने लिखने के लिए कहता है | तो तू कभी को वो बहुत अच्छे
से सीधा जवाब देती है | पहली बात तो मैं शादी नहीं करूंगी अगर करूंगी तो मेरे पति को मैं
कोलकाता नहीं जाने दूंगी | कोलकाता पर बजर गिरे अर्थात कोलकाता का  सत्यानाश हो |

प्रश्न – चंपा कोई पर क्यों विश्वास नहीं होता कि गांधी बाबा ने पढ़ने लिखने की बात कही
होगी ?
उत्तर –
चंपा ने दो बातें सुन रखी थी –
i) पढ़ना लिखना बुरी बात है |
ii) गांधी बाबा अच्छे मनुष्य है |
जब  कवि कहता है कि गांधी बाबा कहते हैं  सब पढ़ लिख जाए | तू भी पढ़ना शुरू कर दे |
तो उसको विश्वास नहीं हो पाता कि गांधी बाबा तो अच्छे मनुष्य थे | उन्होंने कैसे पढ़ने लिखने
जैसी बुरी बात कही होगी |

शुभकामनाएं सहित !

आज हम वितान पुस्तिका का तीसरा अध्याय करेंगे – आलो आधारि |

प्रश्न पाठ् के किन अंशओ से समाज की यह सच्चाई उजागर होती है कि पुरुष के बिना
स्त्री का कोई अस्तित्व नहीं है क्या वर्तमान समय में स्त्रियों की इस सामाजिक स्थिति में
कोई परिवर्तन आया है ? तर्क सहित उत्तर दीजिए |
उत्तर –
आलो आधार पाठ में कई स्थलों पर इस ओर संकेत किया गया है कि भारतीय समाज में पुरुष
के बिना स्त्री का कोई अस्तित्व नहीं है | लेखिका बेबी हालदार को पुरुष के सहारे के बिना
अपना जीवन यापन के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा काम ढूंढना मकान की तलाश करना
और लोगों की गंदी नजरों का सामना करना ऐसे ही संघर्ष है | पुरुष के बिना स्त्री के जीवन
में अनेक समस्याएं आती हैं | आसपास के लोग उनसे पूछते हैं तुम्हारा स्वामी कहां है | तुम
कितने दिन से यहां रहा हो |तुम अपने स्वामी के पास क्यों नहीं जाती हो |

किसी दिन घर पहुंचते वक्त देरी हो जाए तो मकान मालिक स्त्री पूछती है | इतनी देर कहां
रह गई | कहां जाती है रोज-रोज | तू अकेली है | तुझे इन बातों का ध्यान रखना चाहिए
वगैरा-वगैरा वर्तमान समय में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति में काफी बदलाव आया है | स्त्री
या पुरुष के बिना स्वतंत्र रूप से रह रही है | अनेक प्रकार के कार्य करके अपना जीवन यापन
कर रहे हैं | हर क्षेत्र में पुरुष की बराबरी कर रहे हैं | उन्हें समाज में भी सम्मान की दृष्टि से
ही देखा जाता है | कुछ असामाजिक तत्व स्त्री के अकेलेपन का अनुचित लाभ उठाना चाहते
हैं | इसलिए सरकार को अकेली रहने वाली महिलाओं की सुरक्षा के लिए महिला आश्रम
और महिला आवास  घरों का निर्माण करना चाहिए | वह राजनीति का क्षेत्र हो या खेल
का मैदान हो स्त्रियों ने हर जगह अपनी स्थिति मजबूत कर ली है |

प्रश्न –  अपने परिवार से तातुश के घर तक के  सफ़र मैं बेबी के सामने रिश्तों की कौन
सी सच्चाई उजागर होती है?
उत्तर –
इस सफर में बेबी ने जान लिया कि रिश्ते दिलों से बनते हैं | तातुश उसे दिल से चाहते थे |
उन्होंने उसे बेटी बनाकर रखा था |किसी चीज की कमी नहीं होने दी | इस घर में आने से
पहले उसे बहुत सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा | उसके माता पिता भाई बंधु आदि
सबको पता था कि वह पति से अलग होकर अपने बच्चों के साथ अकेली रह रही है | कोई
भी उसकी सहायता और हालचाल पूछने नहीं आया | उसे अपनी मां की मृत्यु का समाचार
भी 7 महीने के बाद पता चला उसका घर तोड़ दिया गया | वह रात भर बच्चों के साथ
खुले आसमान में एक परिचित भोला दा के साथ बैठी रही | पास ही उसके दो भाई रहते
थे | परंतु उन्होंने उसकी खबर खोज नहीं ली | उसके सामने सभी रिश्तों की पोल खुलती
गई सभी संबंध व्यर्थ ही लगते गए उसकी सहायता अनजान लोगों में से सुनील ड्राइवर,
तातुश और भोला  दा ने की औरतों ने भी उसका दर्द कम ही समझा | हर आदमी उसकी
मजबूरी का फायदा उठाना चाहता था |

प्रश्न – इस पाठ से घरों में काम करने वालों के जीवन की जटिलताओं का पता चलता
है घरेलू नौकरों को और किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है इस पर विचार
करिए?
उत्तर –
आलो आधारि  पाठ से हमें पता चलता है कि लोगों के घरों में काम करने वाले घरेलू नौकरों
को किस प्रकार  से अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है | रहने के लिए अच्छी
जगह नहीं होती | बच्चों की शिक्षा का कोई प्रबंध नहीं होता | जहां वो रहते हैं आसपास
गंदगी होती है उन्हें अपनी तरह का जीवन जीने का कोई हक नहीं होता | मालिक ने जो
कहा उन्हें वही करना पड़ता है | सारा दिन काम करके भी उन्हें डांट ही मिलती है | कई बार
तो वह भूखे प्यासे ही अपना काम करते रहते हैं | किसी किसी घर में तो घरेलू नौकरों के
साथ अमानवीय व्यवहार भी होता है | छोटी सी गलती पर उन्हें पशुओं की तरह मारा जाता
है | बीमार होने पर दवा भी नहीं करवाई जाती | कई बार तो उन्हें मजदूरी के लिए भी
गिड़गिड़ाना पड़ता है | घरेलू नौकरों को बहुत सारी समस्याओं का सामना करना पड़ता है |

प्रश्न – आलो आधारि  रचना बेबी की व्यक्तिगत समस्याओं के साथ-साथ कई सामाजिक
मुद्दों को समेटे हुए हैं किन्हीं दो मुख्य समस्याओं पर अपने विचार प्रकट करें ?
उत्तर –
इस पाठ के अनुसार बहुत सी समस्याएं हैं | जैसे कि परित्यक्ता स्त्री की दशा, आवाज की
समस्या, बच्चों की शिक्षा की समस्या, सार्वजनिक शौचालय की समस्या, घरेलू नौकरों
की समस्या, गंदगी की समस्या और स्त्रियों की दशा आदि |

पहली समस्या –
समाज में स्त्री की दशा को लेते हैं | एक अकेली रह रही स्त्री को समाज में ताने क्यों सुनने
पड़ते हैं ? क्या उसे अपनी इच्छा से जीने का हक नहीं है ? लोग उसे गंदी नजरों से देखते
हैं अकेली मजबूर स्त्री की मदद करने की बजाय उसे परेशान किया जाता है | उसके
अकेलेपन का कुछ लोग नाजायज लाभ उठाना चाहते हैं | कुछ ताने कसते हैं | वह अपने
काम से काम रखते हुए भी लोगों की कु दृष्टि का शिकार बनती रहती है |
दूसरी  समस्या –
सार्वजनिक शौचालयों का भाव कई क्षेत्रों में घरों में भी शौचालय बाथरूम नहीं होते | ऐसे
में पुरुषों का काम तो चल जाता है | मगर स्त्रियों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ता
है | इन समस्याओं को समाज ही दूर कर सकता है | आपसी भेदभाव भुलाकर हम जाति का
सम्मान करें व असहाय लोगों की सहायता करें तभी इन समस्याओं का समाधान हो सकेगा |

प्रश्न – ‘ तुम दूसरी आशापूर्णा देवी बन सकती हो ’ – जेठू का यह कथन रचना- संसार
के किस सत्य को उद्घाटित करता है?
उत्तर –
‘तुम दूसरी अन्नपूर्णा देवी बन सकती हो’ जेठू का यह कथन लेखिका बेबी में नया उत्साह
का संचार करता है | इस कथन का आशय था कि लेखिका के जीवन की जटिलताएं उसके
आगे नहीं आ सकती | आशापूर्णा देवी ने भी अभावों – भरे  जीवन में अपना लेखन जारी
रखा और नई ऊंचाइयों को छू लिया | जिस किसी में लेखन प्रतिभा है | उसे जरा सा उत्साहित
कर दे तो मैं अच्छा लेखन लिखने लग जाता है | जेठू ने लेखिका की लेखन प्रतिभा को पहचाना
था | चाहते थे कि लेखिका बेबी लिखना जारी रखें | व पत्रों के माध्यम से उनका उत्साह बढ़ाते
थे | प्रोत्साहन मिलने पर मनुष्य में काम भी कर जाता है | जिसे सोचने से भी डरता है |

प्रश्न – बेबी की जिंदगी में साथ उसका परिवार ना आया होता तो उसका जीवन कैसा
होता कल्पना करें और लिखें |
उत्तर –
बेबी की जिंदगी में तातुश का परिवार  ना आया होता तो निश्चय ही उसका जीवन एक नरक
की तरह होता | उसे पेट भर खाना भी ना मिलता | बच्चों का पालन पोषण भी ठीक ना होता |
उसके परिवार को भीख मांगने की पड़ती | उसके बच्चे दूसरों का जूठन खा रहे होते बुरी संगत
में पड़ गए होते बेबी को भी बस्ती के गुंडों से अपनी इज्जत बचाने मुश्किल हो जाती | उसे
पढ़ने लिखने का तो अफसर ही ना मिलता | झोपड़पट्टी में असुविधाओं के साथ अपना जीवन
व्यतीत कर रही होती |

प्रश्न – बेबी के चरित्र की विशेषताएँ लिखिए?
उत्तर – 
यह पाठ बेबी की आत्मकथा है बेबी के चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित है –

i) साहसी – बेबी का चरित्र एक साहसी महिला के रूप में उभर कर सामने आता है |
वह पति के साथ अलग होकर अपने बच्चों के साथ किराए के मकान में रहती हैं | लोगों के
घरों में काम करके अपने बच्चों का पालन पोषण करती हैं | काम छूट जाने पर भी घबराते
नहीं रात भर खुले में अपने बच्चों के सामान के साथ रहती हैं | यह जीवन  मैं आने वाली प्रत्येक
परिस्थिति का मुकाबला साहस पूर्वक करती है |
ii) परिश्रमी – बेबी बहुत परिश्रमी महिला है | रात उसके घर का सारा कामकाज निपटा
कर समय निकालकर पढ़ भी लेती है |

iii) अध्ययन शील बेबी को इस बात का दुख है कि मैं बचपन में पढ़ लिख नहीं सकती थी |
साथ उसके घर अलमारियां साफ करते हुए उसकी नजर उसको पर पड़ती है | सोचती थी कि
उन्हें कौन पढ़ता होगा वैसे में छठी कक्षा में थी जब उसने पढ़ाई छोड़ दी थी | जब तक उसने
उसे पूछा तो उसने रविंद्र नाथ ठाकुर नज़रुल इस्लाम शरद चंद्र आदि के नाम  गिनवा दिए |

iv) ममता से भरी हुई – बेबी को अपने बच्चों के भविष्य की बहुत चिंता रहती है |
उन्होंने पढ़ा लिखा कर सभ्य नागरिक बनाना चाहती है | रात उसकी सहायता से वह दो बच्चों
को स्कूल में प्रवेश दिला देती है | उसका बड़ा लड़का कहीं नौकरी करता था | उसका उसे पता
नहीं चलता था | तो वह व्याकुल लौटती थी | रात उसने उसे उसके बेटे से मिलवा दिया | वह
पूजा के अवसर पर अपने बड़े लड़के को भी घर ले आती है | इस प्रकार स्पष्ट है कि बेबी एक
परिश्रमी, साहसी, स्वाभिमानी एव अध्ययन शीलता वाली महिला थी |