सांप्रदायिक संक्रमण -आखिर क्या है इसकी परिभाषा और क्यों इसकी जांच ज़रूरी है?

भारत में कोरोना महामारी ने जबसे दस्तक दी है तब से यहां का जनसंख्या घनत्व विशेषज्ञों और शोधकर्ताओं की चिंता का कारण बना हुआ है। भारत जैसे घनी आबादी वाली जगह पर सामाजिक दूरी (2 गज़ दूरी) जैसे नियम का पालन करना बहुत कठिन है और कोरोना बहुत अधिक संख्या में लोगों को बीमार करता रहा तो यहां की स्वास्थ्य व्यवस्था पूरी तरीके से चरमरा जाएगी। ये स्थिति हम अभी से दिल्ली, मुंबई, पुणे, चेन्नई, अहमदाबाद जैसे महानगरों में देख सकते हैं। इन शहरों में मरिजों की संख्या में विस्फोट हो चुका है और अस्पतालों की क्षमता समाप्त हो चुकी है। लेकिन इस समय में ये समझना ज़रूरी है कि आखिर विपक्ष और जानकार किस कारण से बार-बार भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद(आई.सी.एम.आर) से यह प्रश्न कर रहे हैं कि वह इस स्थिति को “सांप्रदायिक संक्रमण” क्यूं नहीं घोषित करते।

आखिर सांप्रदायिक संक्रमण की परिभाषा क्या है? इसका होना किस भविष्य की संभावना को व्यक्त करता है? और आखिर क्यूं ज़रूरी है इस पर चर्चा?
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने हर महामरी के कुछ चरण बनाए हैं ताकि इससे निपटने का बुनियादी ढांचा बनाया जा सके। पहले चरण में बीमारी के मामले दुनिया के अलग-अलग देशों से कुछ मात्रा में आते हैं जहां उस वायरस की उत्पत्ति ना हुई हो जैसे इटली, अमरीका, स्पेन, भारत में जब चीन से आने वाले लोगों द्वारा बीमारी ने प्रवेश कर लिया।
दूसरे चरण को लोकल ट्रांसमिशन कहा जाता है जिसमें बाहर से आए संक्रमित व्यक्ति के संपर्क में आए लोगों को भी बीमारी हो जाए। इन मामलों में ट्रेसिंग करके संभावित संक्रमितों को क्वारांटाइन किया जा सकता है।
तीसरे चरण को “सांप्रदायिक संक्रमण” कहा जाता है इसकी कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं तय की गई है लेकिन मूल रूप से जब कोई संक्रमण किसी देश में इतना फैल जाए कि किसी व्यक्ति को कहां से बीमारी हुई ये पता ना चल पाए तो इसे सांप्रदायिक संक्रमण कहते हैं। इस तरह की स्थिति में महामारी का अंत तय नहीं किया जा सकता। अधिक से अधिक लोगों को यह संक्रमण घेर चुका है ऐसा मान लिया जाता है। प्रतिदिन संख्या बढ़ती जाती है, संक्रमितों की और उससे मारने वालों की भी। जब यह चरम पर पहुंच जाए तो उसे पीक कहा जाता है जिसके बाद स्थिति धीरे-धीरे सामान्य हो जाती है।
अन्तिम चरण को स्थानिक या एंडेमिक कहा जाता है जिसमें बीमारी के हर वर्ष आने का खतरा बना रहता है जैसे कि मलेरिया, डेंगू आदि।

दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री द्वारा तो यह स्पष्ट कर दिया गया है कि दिल्ली में कई मरीजों को कहां से संक्रमण हुआ इसका पता नहीं लगाया जा सका है। महानगर मुंबई में मामले 57000 तक पहुंच चुके हैं लेकिन सरकार द्वारा अभी भी यही जानकारी दी जा रही है कि सांप्रदायिक संक्रमण नहीं हुआ है। सरकारी एजेंसियों द्वारा सांप्रदायिक संक्रमण की संभावना ख़ारिज कर दी गई है लेकिन कई डॉक्टरों और अन्य शोधकर्ताओं द्वारा कहा जा रहा है कि हम सांप्रदायिक संक्रमण के चरण में प्रवेश कर चुके हैं।
अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर इस शब्द के प्रयोग से क्या अंतर हो जाएगा। विशेषज्ञ कहते हैं कि जब हम मान लें कि अब हमारी अधिक से अधिक जनसंख्या इससे संक्रमित है तो सरकार की नीति में परिवर्तन आ जाता है। तब सरकार संक्रमितों के पाए जाने पर ट्रेसिंग बंद कर देती है और उसमें इस्तेमाल किए जाने वाले संसाधनों को इलाज में लगा देती है। समय, धन और प्रशासन तब सिर्फ अस्पतालों और अलग-अलग जगहों में मरीजों के लिए बैड उपलब्ध कराने में लग जाता है। जनता को पूरे तरीके से बता दिया जाता है कि अब संक्रमण किसी को भी हो सकता है और ऐसे ही समय में सख्त लॉकडाउन की आवश्यकता होती है।

आई.सी.एम.आर कहता है कि भारत की कुल आबादी में से अबतक केवल 0.73% लोगों में ही कोरोना की पुष्टि हुई है हालाकि दुनिया भर में टेस्टिंग के मामले में भारत अभी भी काफ़ी पीछे है। तो क्या यह मान लें कि बाकी के 99.27% लोग सुरक्षित हैं?
एम्स के पूर्व निदेशक डॉक्टर एम.सी मिश्रा और अन्य जानकारों ने यह सवाल पूछकर साफ कह दिया है कि भारत में कम्युनिटी अथवा सांप्रदायिक संक्रमण हो चुका है। सरकार कब आधिकारिक तौर पर इन बातों की पुष्टि करेगी कोई नहीं कह सकता लेकिन इस आर्टिकल के माध्यम से हमें और आपको ये तो समझ जाना चाहिए कि स्थिति गंभीर है और हमें अपने आप को सुरक्षित रखते हुए सामाजिक दूरी के सभी नियमों का पालन करना है।