An interesting piece of History: The Abduction of Art

The entire world has been a witness to the tyranny and totalitarian nature of Kim dynasty in North Korea which prevails to this date. The insanely toxic obsession to become the most dangerous nuclear power at the cost of letting its own people die due to poverty and hunger is what makes the Kim leaders so diabolical. But did you know that Kim Jong-il, the second supreme leader of North Korea, planned and executed the abduction of a South Korean film producer and director along with his wife to fetch worldwide recognition for North Korea’s filmmaking?

Shin Sang-ok (1926-2006) is a highly celebrated South Korean film producer and director who worked prolifically to adorn the “Golden Age of South Korean Cinema” with some of the best jewels like The Evil Night (1952), A Flower in Hell (1958), Prince Yeonsan (1961) and 3 Ninjas Knuckle Up (1995) to name a few. Shin Sang-ok is often called “The Prince of South Korean Cinema” for his contribution in the 1950s and 1960s. But little did he know that his own life would become the most incredible story that none of his movies could ever tell.

In 1966, Kim Jong-il, North Korea’s future dictator, became director of the Motion Picture and Arts Division. He was a big fan of films and is known to have a dedicated library of approximately 15,000 movies at his disposal. He produced and directed films that were specifically designed to put his father, Kim Il-sung, as the ultimate messiah of the subjects of North Korea. But he was frustrated with his films in the 1970s. He felt they were lifeless and stiff as compared to the global counterparts. This was the point where it all began. The desperation to gain global appreciation in showbiz led him to kidnap South Korean actress Choi Eun-hee in 1978 from Hong Kong. According to a proposition Choi Eun-hee was in Hong Kong to direct a film. She arrived in Nampo Harbour, North Korea on 22 January 1978. She was housed in a luxurious villa and several tours were arranged for her to visit important spots of the city. Kim Jong-il took her to various movie shows, theatres, operas, and musicals for her perspective on the

सांप्रदायिक संक्रमण -आखिर क्या है इसकी परिभाषा और क्यों इसकी जांच ज़रूरी है?

भारत में कोरोना महामारी ने जबसे दस्तक दी है तब से यहां का जनसंख्या घनत्व विशेषज्ञों और शोधकर्ताओं की चिंता का कारण बना हुआ है। भारत जैसे घनी आबादी वाली जगह पर सामाजिक दूरी (2 गज़ दूरी) जैसे नियम का पालन करना बहुत कठिन है और कोरोना बहुत अधिक संख्या में लोगों को बीमार करता रहा तो यहां की स्वास्थ्य व्यवस्था पूरी तरीके से चरमरा जाएगी। ये स्थिति हम अभी से दिल्ली, मुंबई, पुणे, चेन्नई, अहमदाबाद जैसे महानगरों में देख सकते हैं। इन शहरों में मरिजों की संख्या में विस्फोट हो चुका है और अस्पतालों की क्षमता समाप्त हो चुकी है। लेकिन इस समय में ये समझना ज़रूरी है कि आखिर विपक्ष और जानकार किस कारण से बार-बार भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद(आई.सी.एम.आर) से यह प्रश्न कर रहे हैं कि वह इस स्थिति को “सांप्रदायिक संक्रमण” क्यूं नहीं घोषित करते।

आखिर सांप्रदायिक संक्रमण की परिभाषा क्या है? इसका होना किस भविष्य की संभावना को व्यक्त करता है? और आखिर क्यूं ज़रूरी है इस पर चर्चा?
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने हर महामरी के कुछ चरण बनाए हैं ताकि इससे निपटने का बुनियादी ढांचा बनाया जा सके। पहले चरण में बीमारी के मामले दुनिया के अलग-अलग देशों से कुछ मात्रा में आते हैं जहां उस वायरस की उत्पत्ति ना हुई हो जैसे इटली, अमरीका, स्पेन, भारत में जब चीन से आने वाले लोगों द्वारा बीमारी ने प्रवेश कर लिया।
दूसरे चरण को लोकल ट्रांसमिशन कहा जाता है जिसमें बाहर से आए संक्रमित व्यक्ति के संपर्क में आए लोगों को भी बीमारी हो जाए। इन मामलों में ट्रेसिंग करके संभावित संक्रमितों को क्वारांटाइन किया जा सकता है।
तीसरे चरण को “सांप्रदायिक संक्रमण” कहा जाता है इसकी कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं तय की गई है लेकिन मूल रूप से जब कोई संक्रमण किसी देश में इतना फैल जाए कि किसी व्यक्ति को कहां से बीमारी हुई ये पता ना चल पाए तो इसे सांप्रदायिक संक्रमण कहते हैं। इस तरह की स्थिति में महामारी का अंत तय नहीं किया जा सकता। अधिक से अधिक लोगों को यह संक्रमण घेर चुका है ऐसा मान लिया जाता है। प्रतिदिन संख्या बढ़ती जाती है, संक्रमितों की और उससे मारने वालों की भी। जब यह चरम पर पहुंच जाए तो उसे पीक कहा जाता है जिसके बाद स्थिति धीरे-धीरे सामान्य हो जाती है।
अन्तिम चरण को स्थानिक या एंडेमिक कहा जाता है जिसमें बीमारी के हर वर्ष आने का खतरा बना रहता है जैसे कि मलेरिया, डेंगू आदि।

दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री द्वारा तो यह स्पष्ट कर दिया गया है कि दिल्ली में कई मरीजों को कहां से संक्रमण हुआ इसका पता नहीं लगाया जा सका है। महानगर मुंबई में मामले 57000 तक पहुंच चुके हैं लेकिन सरकार द्वारा अभी भी यही जानकारी दी जा रही है कि सांप्रदायिक संक्रमण नहीं हुआ है। सरकारी एजेंसियों द्वारा सांप्रदायिक संक्रमण की संभावना ख़ारिज कर दी गई है लेकिन कई डॉक्टरों और अन्य शोधकर्ताओं द्वारा कहा जा रहा है कि हम सांप्रदायिक संक्रमण के चरण में प्रवेश कर चुके हैं।
अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर इस शब्द के प्रयोग से क्या अंतर हो जाएगा। विशेषज्ञ कहते हैं कि जब हम मान लें कि अब हमारी अधिक से अधिक जनसंख्या इससे संक्रमित है तो सरकार की नीति में परिवर्तन आ जाता है। तब सरकार संक्रमितों के पाए जाने पर ट्रेसिंग बंद कर देती है और उसमें इस्तेमाल किए जाने वाले संसाधनों को इलाज में लगा देती है। समय, धन और प्रशासन तब सिर्फ अस्पतालों और अलग-अलग जगहों में मरीजों के लिए बैड उपलब्ध कराने में लग जाता है। जनता को पूरे तरीके से बता दिया जाता है कि अब संक्रमण किसी को भी हो सकता है और ऐसे ही समय में सख्त लॉकडाउन की आवश्यकता होती है।

आई.सी.एम.आर कहता है कि भारत की कुल आबादी में से अबतक केवल 0.73% लोगों में ही कोरोना की पुष्टि हुई है हालाकि दुनिया भर में टेस्टिंग के मामले में भारत अभी भी काफ़ी पीछे है। तो क्या यह मान लें कि बाकी के 99.27% लोग सुरक्षित हैं?
एम्स के पूर्व निदेशक डॉक्टर एम.सी मिश्रा और अन्य जानकारों ने यह सवाल पूछकर साफ कह दिया है कि भारत में कम्युनिटी अथवा सांप्रदायिक संक्रमण हो चुका है। सरकार कब आधिकारिक तौर पर इन बातों की पुष्टि करेगी कोई नहीं कह सकता लेकिन इस आर्टिकल के माध्यम से हमें और आपको ये तो समझ जाना चाहिए कि स्थिति गंभीर है और हमें अपने आप को सुरक्षित रखते हुए सामाजिक दूरी के सभी नियमों का पालन करना है।

“हम श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा करेंगे परन्तु हम श्रम मंत्री का नाम नहीं जानते “~~एक संवेदनशील राजनेता

कुछ इसी प्रकार से राजनेताओं की पोल खुली जब मजदूरों से असीम सांत्वना रखने वाले राजनेता देश के श्रम मंत्री का नाम नहीं कह पाए। इस बात से कोई फ़र्क नही पड़ता कि इस समय वह संसद के किस भाग में विराजित है लेकिन क्या सरकार अथवा विपक्ष की इसमें कोई जवाबदेही नही?
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कुछ दिनों पहले एक मार्मिक चित्र पूरे देशभर में वायरल था। एक छोटा बच्चा बिहार के मुज्जफरपुर रेलवे स्टेशन पर अपनी मां के मृत शव के साथ खेलता हुआ पाया गया। उसकी श्रमिक मां भूख और गर्मी से प्रताड़ित हो कर अंत में अपने जीवन से हाथ धो बैठी। ऐसे अनेक दृश्य पिछले 3 महीनों से देश के अलग अलग शहरों से प्रतिदिन हमारे सोशल मीडिया पर आ रहें हैं।
कहीं मज़दूर सड़कों पर भीषण गर्मी में पैदल चल रहे हैं तो कहीं आय से कई गुना अधिक पैसे देकर ट्रकों से अपने घर जाने की कोशिश कर रहे हैं।

इस तरह के मामलों के बाद भी सरकार इन श्रमिकों के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठा पाई। राज्य और केंद्र दोनों ही दरवाजों से मजदूरों को केवल मायूसी ही मिली। महामरी के इस दौर ने एक बहुत ही कड़वे सच से पर्दा उठा दिया है कि इस देश के विकास में श्रमिकों की अहम भूमिका तो है लेकिन उनके निजी विकास में किसी को कोई रुचि नही।
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हमारे श्रम मंत्री श्री संतोष कुमार गंगवार इस दौर में भी मीडिया से गायब हैं। उत्तर प्रदेश, पंजाब जैसे राज्यों में श्रमिक कानूनों में किए गए बदलावों पर भी उन्होंने कोई आपत्ती नही जताई। न्यूज़ चैनलों पर बैठकर विभिन्न राजनैतिक पार्टियों से आए प्रवक्ताओं ने पूरे उत्साह से मजदूरों को अपना समर्थन दिया और बड़े ही उत्तम तरीके से आरोप प्रत्यारोप के खेल को निभाया परन्तु कोई भी मुख्य समस्या पर स्पष्ट उत्तर नहीं दे पाया।

दूसरे मुद्ददों की तरह ये भी चुनावी रैलियों में राजनेताओं की जय जयकार करवाने के लिए छोड़ दिया गया। श्रमिकों के लिए चलाई गई ट्रेनें भी परेशानी का सबब बन गई। मुंबई से गोरखपुर जाने वाली गाड़ी ओडिशा पहुंच गई तो किसी ट्रेन को पटना पहुंचते हुए 60 घंटे लग गए। ट्रेनों में दिए गए भोजन में चीटियां होना, कई घंटो कड़ी गर्मी में बिना जल के सफ़र करना ऐसी कई परेशानियों का सामना करते हुए ये श्रमिक अपने घर पहुंच भी गए तो फ़िर सरकार के क्वारांटाइन सेंटर में इन्हे लचड़ व्यवस्था में गुज़ारा करना पड़ रहा है। बिहार में जितनी मौतें अस्पतालों में नहीं हुई उससे अधिक तो उनके क्वारांटाइन सेन्टर में भूख से हो रही है।
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इतने हादसों के बाद जब उच्च न्यायालय ने सरकार को निर्देश दिए तब तक बहुत देर हो चुकी थी। 8 करोड़ होने के बावजूद इन मजदूरों की कोई आवाज़ नहीं है। स्थिति सामान्य होने पर ये फिर से पलायन को मजबूर होंगे और अपनी जीविका के लिए फिर से महानगरों का रुख करेंगे किन्तु क्या सरकार और विपक्ष अपनी जवाबदेही तय करेंगे? क्या आगे फिर ऐसी स्तिथि का उपाय किया जाएगा? क्या ये गरीब तबका अपने लिए आवाज़ उठा पाएगा? क्या मजदूर संघ और जटिल तरीके से श्रमिकों का पक्ष रख सकेंगे या फिर ये अधिकारों की लड़ाई भी अदालत और सरकारी मेजों पर केवल कागज़ मात्र रह जाएगी।